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________________ ऐसे उपद्रवोंमें से बचानेवाले भगवान ही ना ? उस समय मुझे विचार आया था : प्रभावना के नाम पर इस क्षेत्रमें मैं कहां आया ? उस समय कल्पना भी नहीं थी कि मैं स्वस्थ हो जाऊंगा और गुजरात-कच्छमें आकर मैं फिर वाचना दूंगा । परंतु भगवानने मुझे बैठा किया । आज आप वाचनाएं भी सुन रहे हो । ऐसे भगवानको मैं कैसे भूल सकता हूं ? मैं तो अपने अनुभवसे कह रहा हूं : बाह्य-आंतरिक आपत्तिओं में भगवान रक्षण करते ही हैं । जीवनमें खूटती हुई आध्यात्मिक शक्तिओं की पूर्ति करते हैं । जब जरुरत पड़े तब या तो व्यक्ति मिल जाता हैं या तो पंक्ति मिल जाती हैं । नवकार गिनकर मैं पुस्तक खोलता हूं। जो निकले उसमें भगवानका आदेश समझकर मैं अमल करता हूं और सफलता मिलती हैं। अभी भगवान के बिना मुझे किसका आधार हैं ? अनुभव से कह रहा हूं : भगवान हमेशां योग-क्षेम करते ही रहते हैं । मोक्ष तक हमेशां योग-क्षेम करते ही रहते हैं । __ बीजाधानवाले भव्यों के ही भगवान नाथ बनते हैं तो भगवानकी महिमा कम नहीं कही जाती ? नहीं, भगवान की महिमा कम नहीं कही जाती । यही वास्तविकता हैं । यही नैश्चयिक स्तुति हैं। * भगवान कहते हैं : तीर्थ स्थापना करके मैंने कोई बड़ा काम नहीं किया । आप सबका अनंत उपकार हैं । मैं ऋणमुक्ति कर रहा हूं। किंतु भगवानका नय हमसे नहीं लिया जा सकता । शिक्षक भले कहे : 'तुझमें बुद्धि थी इसीलिए तू पढा हैं। पढानेवाला मैं कौन ?' परंतु विनीत विद्यार्थी ऐसा नहीं मान सकता । अप्राप्त गुणों को प्राप्त कर देना वह योग । प्राप्तकी रक्षा करना वह क्षेम । दोनों जो करे वे नाथ । नाथ शब्दका उपयोग कहां कहां हुआ हैं ? जयइ जगजीवमें, जगचिंतामणिमें, जयवीयराय आदिमें बहुत जगह नाथ शब्दका प्रयोग हुआ हैं । किंतु हमारी नजर नहीं गयी । शक्रस्तवमें लिखा हैं : भगवान का प्रेम सर्व संपत्तिओं का (कहे कलापूर्णसूरि - ४ wwwwwwwwwwwwwwwwww ३७)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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