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________________ इस पुस्तक को पढते चित्त प्रसन्न बना हैं । मुझे जो छोटीछोटी बातमें नाराजगी होती थी, अभिमान आदि के कारण 'लेटगो' कर नहीं सकती थी । ऐसे मेरे अंतरंग दोष कम होते दिखाई दे रहे हैं । - सा. हंसगुणाश्री 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मिल गयी हैं । पूज्यपादश्रीने वांकी तीर्थमें दी हुई वाचना को पढते सचमुच ! पूज्यश्री की रग रगमें प्रभुभक्ति बुनी हुई हैं यह पता चल जाता हैं । उसी तरह संयमजीवनमें भी जीवन जीने की कला और नई-नई प्रेरणाएं मिलती हैं । बहुत ही रसप्रद पुस्तक हैं। - साध्वी पुण्यरेखाश्रीजी सुरत पुस्तक पढते आंखें और हृदय रो उठते हैं, दिल द्रवित हो जाता हैं । एकेक रोममें आनंद की लहर दौड़ने लग रही हैं । इस पुस्तक के लाभ पूर्णतया कहने की शक्ति नहीं हैं, परंतु हमारे जीवनमें एक गुण भी आये तो भी बेड़ा पार हो जायेगा । __- सा. देवानंदाश्री आज सुबह-सुबह परम कृपालु परमात्मा की कृपा से परम पूज्य आचार्यदेवश्री का वासक्षेप मिला, तो हृदय पावनता की अनुभूति करने लगा। कुछ ही देर बाद 'कहे कलापूर्णसूरि' नामक ग्रंथ पाकर अत्यंत आनंद हुआ । पूज्यश्री की वाचनाओं का यह सुंदर संकलन बहुत ही प्रेरणादायी रहेगा । - साध्वी अनंतकीर्तिश्री उज्जैन इस पुस्तक को पढते पू. साहेबजी की विशेष भक्ति जानने मिली । अश्रुत और अननुभूत ऐसा ज्ञान जानने मिला । - सा. इन्द्रवन्दिताश्री 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक पढते संयम जीवन की सच्ची तालीम जानने मिली । हमारे जीवन की उन्नति हो, ऐसा जानने मिला । - सा. हर्षितवदनाश्री (कहे कलापूर्णसूरि - ४00000 secowwwww ३७७)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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