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जीवन के सर्व अंग कामके हैं। अठारह हजार शीलांग कामके हैं । एक भी अंग बिगड़ा तो आराधना की घड़ियाल अटक जाती हैं ।
* पुणिया श्रावक के सामायिककी प्रशंसा क्यों की? उसका मन इतना पवित्र और स्थिर रहता कि कोई भी अशुद्धि जल्दी से पकड़ी जाती थी । इसीलिए ही भूल से पड़ोसीके घरका गोबर आ जाने से उसका मन सामायिक में लगा नहीं था ।
आपके पास कितना अन्यायका धन होगा ? फिर आप कहते हैं : माला में मन नहीं लगता । कहां से लगेगा ?
हम कितने अतिचारों से भरे हुए हैं ? फिर मन कहां से लगें ? पुणिया श्रावक को इतनी संभाल रखनी पड़ी तो हमको कुछ संभाल नहीं रखनी ?
आत्मा को आश्वासन दे सकें ऐसी साधना न करूं तो मेरा साधुपन किस कामका ? - ऐसा विचार नहीं आता ?
छोटा बालक खेलते १० लाख रूपये की गठरी जला दें, तो देखकर उसके पिता को कितना दुःख होगा ? ऐसा ही दुःख हमें हो रहा हैं : संयम में होती अशुद्धिओं को देखकर, होते हुए प्रमाद को देखकर ।
आगम, अनुमान और योगाभ्यास से प्रज्ञा को परिकर्मित करने के लिए अजैन लोग कहते हैं। हमारे हरिभद्रसूरिजी कहते हैं : श्रुत, चिन्ता और भावनासे आत्माको परिकर्मित बनानी हैं। भावना ज्ञानवाला चारित्रवान ही होता हैं, वह तत्त्व संवेदन को पाया हुआ ही होता हैं ।
श्रुतज्ञान : सामान्य शब्द का ज्ञान ।
चिंताज्ञान : टीका - नियुक्ति - चूर्णि आदि से विशिष्ट अर्थका ज्ञान । जिन्होंने अर्थ (टीका)का निषेध किया उन्होंने भगवानको खोये । क्योंकि भगवान स्वयं अर्थ से ही देशना देते हैं ।
भावनाज्ञान : हृदय में उसको भावित बनाना वह ! * जीव नवि पुग्गली !
सुमतिनाथ भगवान के देवचन्द्रकृत स्तवनकी यह गाथा हैं । मुझे तो ये स्तवन बालपन से ही कंठस्थ हो गये थे । भगवती के पाठ तो कहां याद रहते हैं ? लेकिन यह कड़ी तो मनमें ही घूमती रहती हैं। (१०00000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)