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________________ फलोदी चातुर्मास के बाद छ'री' पालक संघ के साथ जैसलमेर तीर्थ की यात्रा कर फलोदी वापस पधारे । संघकी आग्रहभरी विनंती से उपधान तप की मंगल आराधना का शुभारंभ हुआ । उसके बाद वि.सं. २०२५ माघ शुक्ला १३ के शुभ दिन मुनिश्री कलापूर्णविजयजी को अनन्य जिन-भक्ति- महोत्सव के साथ गणिपंन्यासपदसे विभूषित किये गये । इस प्रसंग पर फलोदी निवासी मुमुक्षुरत्न श्री हेमचंदभाई (जो संसारी अवस्थामें पूज्यश्री के चचेरे भत्रीजे होते थे) की दीक्षा हुई । वे पूज्यश्री के शिष्य मुनिश्री कीर्तिचंद्रविजयजी के रूपमें घोषित हुए । पंन्यास पद मिलने पर भी, आचार्यदेव श्री विजयदेवेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की सेवामां एक नम्र सेवक की तरह सदा तत्पर रहते । महापुरुषों की यह विशेषता होती हैं कि महत्ता प्राप्त होने पर भी वे कभी गर्व नहीं करते । पूज्य श्रीमें यह गुण तो बचपनसे ही था । अधिकतर पूज्यश्री, आचार्यश्री के साथ ही रहते । किसी कार्यप्रसंगवश अलग होते तो भी वह काम पूर्ण होते ही आचार्यश्री के साथ हो जाते । जिस जिस क्षेत्रमें जाते वहाँ वहाँ तात्त्विक और करुणासभर प्रवचनों द्वारा लोगोंमें धर्म- जागृति लाते । पूज्यश्री का प्रवचन सहज, सरल और असरकारक रहता । पूज्य श्री के प्रवचन प्राय: पूर्व तैयारी बिना के ही रहते । आज भी वे पूर्व तैयारी बिना ही प्रवचन देते हैं । अंतरकी गहराइमें से निकले हुए वे शब्द श्रोता के हृदयमें उतर जाते हैं । पंन्यास-पद प्राप्ति के बाद पूज्य आचार्य श्री विजयदेवेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के साथ चार चातुर्मास किये । वि.सं. २०२७में खंभातमें मनफरा निवासी रतनशी पुनशी गाला को दीक्षा देकर मुनिश्री कुमुदचंद्रविजयजी के नाम से स्वशिष्य बनाये । वि.सं. २०२८, माघ शुक्ला १४ के शुभ दिन कच्छ की राजधानी भुजमें एक साथ हुई ११ दीक्षाओंमें पांच पुरुष और छः बहने थी । पांच पुरुषोंमें से तीन स्वसमुदायमें दीक्षित बने थे । मनफरा निवासी बंधुयुगल मेघजीभाई भचुभाई देढिया, मणिलाल भचुभाई देढिया तथा भुज निवासी प्रकाशकुमार जगजीवन वसा क्रमशः मुनिश्री मुक्तिचंद्रविजयजी, कहे कलापूर्णसूरि - ४ ३६८ Www
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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