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पू. योगनिष्ठ पं. श्री भद्रंकर वि.म. के पास मार्गदर्शन तथा उनकी अनन्य कृपा प्राप्त की ।
वि.सं. २०३७, २०३८, २०३९ एवं २०४७ में बहुश्रुत पू. मुनिश्री जम्बूविजयजी के पास आगम-वाचना ।
वि.सं. २०३९ चातुर्मासमें अहमदाबाद (शांतिनगर) में व्याख्यान वाचस्पति पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरिजी महाराज के पास से भी आशीर्वाद तथा उनके विशाल अनुभव की प्राप्ति ।
इस तरह पूज्यश्रीने जहाँ से जितना प्राप्त कर सके उतना नम्र बनकर प्राप्त ही किया हैं । कभी स्वयं का पद या स्वयं का 'अहम्' आगे नहीं किया । अर्ह का साधक 'अहं' से कैसे ग्रस्त होगा ? गुरु- आज्ञा स्वीकारते मुनिश्री :
गुरु- आज्ञा पालन का उनका एक प्रसंग अत्यंत बोधप्रद हैं । जब जामनगर दो चातुर्मास कर पूज्यश्री अपने गुरुदेवाचार्य के पास भचाउ आये (संवत् २०१९) तब साथमें ही चातुर्मास करने की भावना थी और गुरुदेव की आज्ञा भी वैसी ही थी । लेकिन वहीं गांधीधाम जैन संघ पूज्य गुरुदेव श्री के पास अपार भाव लेकर चातुर्मास की विनंति करने आया । गुरुदेव को बहुत ही चिंता हुई । 'किन्हें भेजना ? मुनिश्री कंचनविजयजी म. तो पीछले साल ही चातुर्मास करके आये हैं और पं. दीपविजयजी का चातुर्मास सामखीयाली नक्की हो गया हैं । पं. भद्रंकरविजयजी तो खास मेरे पास रहने आये हैं और मुनिश्री कलापूर्णविजयजी यद्यपि जा सकते हैं, फिर भी वे मेरे साथ चातुर्मास रहने के लिए आये हैं । किसी को वहाँ पर जाने के लिए कह नहीं सकता हूं और इस तरफ भावनावाले संघको ना भी कह नहीं सकता ।' सचमुच गुरुदेव द्विधामें पड़ गये । गुरुदेव की यह चिंता चकोर शिष्यसे छुपी कैसे रह सकती हैं ? सुविनीत शिष्य तो मुख के भावों से इंगित आकारों से ही गुरुदेव के अभिप्राय जान जाते हैं । मुनिश्री कलापूर्णविजयजी गुरुदेव के पास गये । गुरुदेवने कहा 'ऐसी परिस्थिति हैं । बोलो, अब क्या करें ?' 'जैसी आपकी आज्ञा', सुविनीत शिष्यने सुविनीत जवाब दिया । इससे संतुष्ट हुए पूज्य गुरुदेवाचार्यने अंतरके आशिषपूर्वक दो पुत्र wwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ४
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