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म. के स्तवनों की चोवीसी फटाफट कण्ठस्थ कर ली । भूखे ब्राह्मण को प्रिय लड मिलने के बाद उसे खाते समय कितना ?
उसके बाद तो उनके साहित्यमें ज्यादा से ज्यादा आनंद आने लगा । उनके बनाये हुए ग्रंथ अध्यात्म-गीता, आगमसार इत्यादि पर चिंतन मनन करने लगा ।
भक्तियोग के साथ तत्त्वज्ञान का सुभग सुयोग होते अक्षयराज की आत्मिक विकासमें प्रगति होने लगी । कायोत्सर्ग और ध्यान की भी जिज्ञासा जगी । उस-उस विषय के योगशास्त्र आदि ग्रंथों का पठन करने के साथ प्रभु सन्मुख कायोत्सर्ग मुद्रामें एक घण्टे तक खड़े रहकर ध्यान का अभ्यास करने लगा ।
पू. आनंदघनजी, पू. देवचंद्रजी, पू.उ. यशोविजयजी - इन तीनों महापुरुषों की स्तवन चोवीशियां कण्ठस्थ कर प्रतिदिन प्रभु के सामने ३-४ स्तवन खूब ही उल्लासपूर्वक ललकारता । प्रभु के साथ एकमेक बन जाता और फिर कायोत्सर्गमें खड़े रहकर प्रभुध्यानमें लीन बन जाता ।
धर्मपत्नी रतनबहन :
अक्षयराज के धर्मपत्नी रतनबहन भी एक सुशील और संस्कारी स्त्री-रत्न थे । अपने माता-पिता द्वारा मिले धर्मसंस्कारों की वजह से स्वयं धर्म-प्रवृत्त रहते और अपने पतिदेव को भी संपूर्ण सहयोग देते । जीवनमें संतोष, सादगी, सेवा और समर्पण भाव के गुण सहज रूप से थे । सासु-श्वसुर को अपने माता-पिता तुल्य गिनकर उनकी सेवामें सदा तत्पर रहते । घर का काम करने के साथ वे भी प्रभु-दर्शन, सामायिक, प्रतिक्रमण, नवकारसी, चौविहार आदि धर्मक्रिया और नियमों के पालनमें उद्यत रहते ।
पुत्र-प्राप्ति :
अक्षयराज और रतनबहन को संतान के रूपमें प्रथम पुत्र ज्ञानचंद्र (जन्म संवत २०००) और द्वितीय पुत्र आसकरण (जन्म संवत् २००२) इन दो पुत्रों की प्राप्ति हुई ।
माता-पिता का परलोकगमन :
संवत् २००६में अक्षयराज के मातुश्री खमाबाई का स्वर्गवास हुआ और संवत् २००७में पिताश्री पाबुदानजी का भी स्वर्गवास हुआ । (३५० Wwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ४)