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________________ बहुत लोग तो आगे बढकर 'करुणा' को भी नहीं मानते । हम सब तर्कवादी हैं न ? तर्क से प्रभु की करुणा जान नहीं सकते, भक्तिभाव कर नहीं सकते । भगवान के प्रति भक्तिभाव किये बिना चाहे जितनी क्रियाएं करो, वह सब शुष्क काय-क्लेश बनी रहेगी । भक्तिभाव मिल जाये तो एकमात्र चैत्यवंदन की हमारी क्रिया सभी ध्यान, योग और समाधि से चढ जाये । शरीर होने पर भी भगवान की करुणा को कर्म रोक नहीं सकते, तो शरीर-कर्म आदि से संपूर्ण मुक्त हो जाने के बाद भगवान की करुणा को कोई कैसे रोक सकता हैं ? आज भी भगवान मोक्षमें बैठे-बैठे करुणा फैला रहे हैं । मात्र हमें अनुसंधान करने की जरूरत हैं । फोन आदि यंत्र द्वारा अन्य के साथ अनुसंधान करनेवाले हम भगवान के साथ मंत्र आदि से अनुसंधान हो सकता हैं, ऐसा विश्वास रखते नहीं हैं, यह हमारी बड़ी करुणता हैं । _ 'प्रधान गुण अपरिक्षय' का अर्थ यही होता हैं : जो जो प्रधान गुण भगवानमें प्रकट हुए हैं, उनका कभी क्षय नहीं होता, ये गुण क्षायिक-भाव के बन गये । क्षायिक भाव के गुण कैसे जा सकते हैं ? * पंचसूत्रमें 'अरिहंताइसामत्थओ' ऐसे कहा हैं । मात्र अरिहंत नहीं, 'आई' शब्द हैं । 'आई' यानि 'आदि' । आदि शब्दसे सिद्ध, आचार्य - उपाध्याय, साधु इत्यादि लेने हैं । सबका सामर्थ्य मिल सकता हैं, अगर हम पात्र बनें । * बीस विहरमान भगवान हैं, उसी तरह छद्मस्थ भगवान अभी १६४० हैं । भगवान का सामर्थ्य समग्र ब्रह्मांडमें घूम रहा हैं । जिसजिसका साधना-मार्गमें विकास हुआ हैं, होता हैं या होगा उसके मूलमें यह आर्हन्त्य ही हैं । आप मात्र अरिहंतमें आपका मन जोड़ो, प्रणिधान करो, जगतमें घूमता आर्हन्त्य आपके अंदर सक्रिय बनेगा, यों आप स्वयं अनुभव करोगे । (३०० 00oooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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