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________________ कहानियां कहते । कभी बहिर्भूमि जाते समय भी कहानी कहते । छोटे बालक को इससे ज्यादा क्या चाहिए ? उसके बाद भी हमारे संबंध बहुत उष्माभरे रहे । सं. २०५४ में अहमदावाद चातुर्मासमें मैं उनको कभी-कभार मिलने जाता । मुझे देखकर पूज्यश्री बहुत ही खुश होते । प्रत्येक मुलाकातमें अंतिम वाक्य यह होता : तू अब वापस कब आयेगा ? (मुझे हमेशा तू कहकर ही बुलाते । गाढ आत्मीयता हो वहीं एसा संबोधन हो सकता हैं ।) अहमदाबाद से विहार के समय भी मुझे जल्दी आने के लिए कहा था । २०५५ के चातुर्मास के बाद मेरी स्वयं की भावना भी डीसा से विहार करके अहमदाबादमें पूज्यश्री को मिलने की थी । ४५ आगम का अध्ययन पूज्यश्री के पास करने की तीव्र भावना थी । उनका अध्ययन तलस्पर्शी था । अतः तीव्र आकांक्षा थी । लेकिन कुदरत को यह शायद मंजूर नहीं होगा । चातुर्मास के बाद मैं विहार करूं इससे पहले आज के दिन पूज्यश्री का देह-विलय हो गया । पू. भद्रगुप्तविजयजी के लगभग तमाम पुस्तकें पू. रामचंद्रसूरिजी म. पढते । पढकर प्रभावित हो जाते : वाह ! कैसा अद्भुत लिखा पू. भद्रगुप्तसूरिजी के लिए इससे ज्यादा दूसरा कौन सा प्रमाणपत्र हो सकता हैं ? पू.आ.श्री यशोविजयसरिजी : एक बार पूज्यश्री की वाचना सुनने को मिली । मेरी आदत के अनुसार मैं उनके मुखमें से निकलते शब्दों के पीछे अशब्द अवस्था को देख रहा था । शब्द तो एक बहाना हैं, एक माध्यम हैं; आपको मिलने का । शब्दों के उपयोग के बिना महापुरुष आपको कैसे मिल सकेंगे ? पूज्यश्री के शिक्षागुरु पू. प्रेमसूरिजी । पू. प्रेमसूरिजी एक अच्छे शिल्पी थे । उन्होंने अनेक शिल्पों का (मुनिओं का) सर्जन किया । __गांधीजी के लिए मैं बहुतबार कहता हूं : गांधीजी स्वयं इतने विद्वान नहीं थे, परंतु उनका अनुयायीवर्ग उनसे भी ज्यादा विद्वान (कहे कलापूर्णसूरि - ४0000000000000000® २६७)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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