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________________ चाहता हूं। मैं कहूंगा : जिन भक्ति को मैं भवांतरमें भी साथ ले जाना चाहता हूं। इसलिए ही मैं भक्ति नहीं छोड़ता हूं, भविष्यमें भी नहीं छोडूंगा । दूसरा साथमें क्या आयेगा ? भक्त, शिष्य, पुस्तक या उपाश्रय इत्यादि सांथमें नहीं आयेंगे, ये भक्ति के संस्कार ही साथमें आयेंगे, गृहस्थों को धन, परिवार, मकान आदि की अनित्यता समझानेवाले हम इतना भी नहीं समझ सकते ? (१७) मग्गदयाणं ।. भगवान मार्ग को देनेवाले हैं । चित्त की अवक्र गति वह मार्ग हैं । मार्ग मिलने के बाद मन हमेशा सीधा ही चलता हैं । कर्म का क्षयोपशम बढते जाये त्यों त्यों आगे-आगे के पदार्थ मिलते जाते हैं, अभय से भी चक्षुप्राप्तिमें, चक्षु से भी मार्ग, मार्ग से भी शरण आदि की, उत्तरोत्तर ज्यादा से ज्यादा क्षयोपशम द्वारा प्राप्ति होती हैं । * देव-गुरु पर की अभी की हमारी श्रद्धा उपर-उपर की हैं । मांगकर लाये हुए आभूषण जैसी हैं । ये चले जाय उसमें देर कितनी ? कुछ दूसरा सुनने पर तुरंत ही चली भी जाती हैं, परंतु ज्ञान ज्यों ज्यों गहरा होता जाता हैं, त्यों त्यों श्रद्धा अपनी बनती हैं । स्वयंभू श्रद्धा नहीं जाती । * सांप चाहे जितना टेढा चले, लेकिन बिलमें घूसता हैं तब सीधा ही होता हैं, उसी तरह विशिष्ट गुणस्थानक के लिए स्वरसवाही क्षयोपशम विशेषमें मन सीधा चलने लगता हैं । मनका सीधा चलना यही मार्ग हैं । * दूर-दूर की आशा हम रखते हैं, पर नजदीकमें जो तत्काल हो सकता हैं, उसके लिए प्रयत्न नहीं करते हैं । मोक्षमें जाना हैं, पर सम्यक्त्वादिमें प्रयत्न नहीं करना हैं । सम्मेतशिखर जाना हैं, पर गुरुकुल तक भी जाने की तैयारी नहीं हैं । यह एक आत्मवंचना हैं । इससे बचें । ऐसी शिक्षाएं बहुत बार दे चूका हूं, 'सेठ की शिक्षा दरवाजे तक' ऐसा नहीं होता हैं न ? देव और गुरु ज्यादा से ज्यादा तो पुष्ट निमित्त बनेंगे, पर (१८२00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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