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* 'समयं गोयम ! मा पमायए' यह आपने पढा-सीखा और फिर पुनरावृत्ति की । अब क्या करना ? यह बोलते रहना और क्या प्रमाद करते रहना ? क्या पोपट जैसे बनें ? पोपट की बात कल करुंगा । (तत्पश्चात् पोपट की वार्ता हुई नहीं है ।)
* ज्यादा नहीं आये तो कोई बात नहीं । यदि एकाध श्लोक भी भावित बनाकर जीवन यापन करोगे तो आपको सचमुच परम सन्तोष की अनुभूति होगी ।
* "भो इन्द्रभूते ! सुखपूर्वकं समागतोऽसि ?" यह कहकर यदि भगवान भी औचित्य रखते हों तो हम औचित्य से दूर किस प्रकार जा सकते हैं ?
* गुरु प्रसन्न होकर, आन्तरिक परितोष से जो विद्या प्रदान करते हैं, वही विद्या फलवती होती है। गुरु की अप्रसन्नता पूर्वक प्रदत्त विद्या कदापि फलवती नहीं होती ।
* समस्त विद्याओं के दाता आचार्य गुरु मिलने दुष्कर हैं और उन्हें ग्रहण करने वाला विनयी शिष्य मिलना कठिन हैं।
"श्राद्धः श्रोता सुधीर्वक्ता !" यह कहते हुए हेमचन्द्रसूरिजी ने यही बात कही है ।
* यहां 'शिक्षक' शब्द का अर्थ 'पढ़ाने वाला' नहीं, 'पढ़ने वाला' करें । मन्दकषायी ऐसे शिक्षक अत्यन्त दुर्लभ हैं ।
हमारी उद्धता कषायों की उग्रता सूचित करती है । "ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबल कषाय- अभाव"
- यशोविजयजी जब तक अनन्तानुबंधी कषाय नष्ट नहीं होते, तब तक धर्म नहीं आता । हमें अन्तरात्मा में देखना है कि "कषायों की मात्रा अधिक है या गुणों की ?"
(कहे कलापूर्णसूरि - २00ooooooo00000000000 ४१)