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* देखो, चार महिने यों चुटकी बजाते निकल जायेंगे । समय तनिक भी आपकी राह देखकर बैठा नहीं रहेगा । वह तो सरकता ही रहेगा । सरकता रहे वही समय कहलाता है। आजकल तो दिन तनिक बड़ा है, परन्तु फिर तो बहुत छोटा होता जायेगा । आपके पास तनिक भी समय नहीं रहेगा । यदि इस समय का सदुपयोग नहीं किया तो पश्चाताप के बिना कुछ नहीं बचेगा ।
* पू. हरिभद्रसूरिजी का प्रथम परिचय पू.पं.श्री भद्रंकरविजयजी महाराज ने कराया । वि. संवत् २०१३ के मांडवी चातुर्मास के समय उनका कच्छ में आगमन हुआ । उस समय मुझे विशेष सलाह दी कि यदि आपको अध्यात्म में रूचि हो तो पू. हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थ अवश्य पढ़ें।
तबसे मैंने उसे पढ़ने का संकल्प किया । मैं उसे पढ़ता गया और हृदय नाचता गया । 'हा अणाहा कहं हुंता ।' इन शब्दों को तनिक बदलकर यह कहने का मन हो जाये - 'हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थ नहीं मिले होते तो अपना क्या होता ?'
इस बार हरिभद्रसूरि कृत 'ललित विस्तरा' ग्रन्थ पर वाचना रखनी है ।
पू. पंन्यासजी म. के साथ बेड़ा के चातुर्मास के उपधान में इस ग्रन्थ पर वाचना रही । उसके बाद भी अनेक बार वाचना रही हुई है।
* भगवान की भक्ति हृदय में आने के पश्चात् यदि मैत्री नहीं जगे तो मेरी जिम्मेदारी । मैत्री ही नहीं, समस्त गुण आ जायेंगे । समस्त दोषो को नष्ट करनेवाली और समस्त गुणों को लानेवाली प्रभु-भक्ति है, यह निश्चित मानें ।
“य एव वीतरागः स देवो निश्चीयतां ततः । भविनां भवदम्भोलिः स्वतुल्यपदवीप्रदः ॥"
- योगसार, १-४६ 'योगसार' में भगवान को संसार को काटने में वज्र-तुल्य और स्व-तुल्य पदवी-प्रद कहा है । यह यों ही नहीं कहा । भगवान अपने हृदय में आकर गुणों का प्रकटीकरण एवं दोषों का उन्मूलन करते हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - २0000000000000000000 ५३५)