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कहने लगे - 'भगवान की करुणा मुझ पर है या नहीं ? मुझे प्रेक्टिकल समझायें ।'
मैंने पूछा, 'आपने दीक्षा क्यों ली ?'
वे बोले, 'गुरु महाराज पू. भुवनभानुसूरिजी की शिबिर में मैं गया था । वहां गुरु महाराज ने मेरा हाथ पकड़ा और मैं यहां आया ।"
"बस, यही भगवान का उपकार है; अन्य किसी का नहीं और आपका ही हाथ क्यों पकडा ? गुरु के माध्यम से भगवान की करुणा आपके ऊपर बरसी, ऐसा क्या आपको नहीं लगता ? अन्य किसी को नहीं और आपको ही क्यों समझाया ?"
यद्यपि भगवान की करुणा तर्क से नहीं बैठती, हृदय से बैठती है । कर्म का अमुक क्षयोपशम हुआ हो तो ही समझ में आये ।
यह भी सोचें कि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् अपना निर्वाह चलता है, यह किसका उपकार है ? भगवान का ही उपकार है। इसमें प्रभाव काम करता है । आगे बढ़कर कहूं तो समग्र विश्व पर नाम आदि के द्वारा भगवान उपकार करते हैं ।
'नामाऽपि पाति भवतो भवतो जगन्ति ।' प्रभु ! आपका नाम भी संसार से जगत् की रक्षा करता है।
- कल्याणमन्दिर इसमें नाम उपकार करता है, प्रभु कहां आये ? यह मत पूछना । आखिर नाम किसका है ? भगवान का ही नाम है न ?
अब यह समझना रहा कि हमें यह मानव-जन्म, नीरोगी शरीर आदि भगवान की कृपा से ही मिले हैं ।
* ऐसी बातें पू.पं. भद्रंकरविजयजी महाराज ने तीन वर्ष तक घोट घोट कर समझाई हैं । हमारा संघ ऐसा पुन्यशाली है। फिर भी कुछ कमी हो तो इस तत्त्व की कमी है, ऐसा पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते थे ।
ऐसे उपकारी भगवान हैं । इसीलिए तो दिन में सात बार चैत्यवन्दन करने हैं, प्रत्येक चौमासीह देववन्दन करने हैं, लोगस्स में नाम लेकर याद करने हैं । लोगस्स में तो गणधर जैसे भी भगवान के पास प्रार्थना करते हैं "आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवर
(४२८ Boooooooooo0000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)