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________________ भक्त इस प्रकार कहता है, उसके प्रत्युत्तर में भगवान कहते हैं कि भक्तराज ! तुझे चाहिये उतने गुण ले जा, कौन इनकार करता है ? प्रभु का गुण गाये वह प्रभु के समान बनेगा ही । _ "नात्यद्भुतं भुवन भूषण भूतनाथ । भूतैर्गुणै (वि भवन्तमभिष्टवन्तः ॥" मानतुंगसूरिजी कहते हैं कि आपके गुण गाते-गाते आपके समान बने उसमें आश्चर्य क्या है ? सेठ के आश्रित रहा हुआ व्यक्ति सेठ बन जाये तो भगवान के आश्रित होकर रहा हुआ भक्त भगवान क्यों नहीं बन सकता ? * भगवान कहीं भी पक्षपात करते नहीं हैं । गौतम स्वामी को कदापि ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि मैं सबसे बड़ा फिर भी मुझे केवलज्ञान नहीं और आज के दीक्षित मुनि केवलज्ञान प्राप्त कर लें? यह कैसा पक्षपात ? उन्हें भक्ति इतनी प्रिय लगी कि उसके लिए उन्होंने केवलज्ञान भी एक ओर रख दिया । _ 'मुक्तिथी अधिक तुज भक्ति मुज मन वसी...' यह पंक्ति गौतम स्वामी पर चरितार्थ होती प्रतीत होती है । * जिन के भक्त को कदापि अपराध करने की इच्छा ही नहीं होती । भक्ति के प्रवाह में बहते भक्त को पता है कि यहां अपराध रह ही नहीं सकता । "प्रभु उपकार गुणे भर्या, मन अवगुण एक न माय रे..." - उपा. यशोविजयजी म. एकाध दोष होता है वहां उस के अन्य मित्र आते हैं, परन्तु जहां एक भी मित्र नहीं दिखाई दे, वहां दोष आकर करें क्या? भगवान स्वयं तो दोषमुक्त हैं ही, उनके आश्रय में रहे वह भी दोष-मुक्त बनेगा ही । "जिणाणं जावयाणं तिन्नाणं तारयाणं" ये पद यही बात बताते हैं । * ठीक है, भूल हो जायेगी तो प्रायश्चित्त ले लेंगे। ऐसा भाव रहे और भूल करते रहें तो भूल का निवारण कदापि नहीं हो सकता। यदि भूल रहित जीवन बनाना हो तो यह भाव त्यागना ही पड़ेगा । (४२६ 000 000000005@ कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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