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सद्गुण प्राप्त करके तप-जप आदि की प्रेरणा देकर चतुर्विध संघ को सुमार्ग की ओर उन्मुख करें ।
अब नूतन आचार्य को वन्दन होगा ।
(नूतन आचार्य श्री विजयकलाप्रभसूरिजी को पद-प्रदाता गुरुदेव पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी ने वन्दन किया, उस समय नूतन आचार्यश्री के नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये थे । उनका मन वन्दन लेने के लिए तैयार नहीं था )
पूज्य नूतन आचार्यश्री
मुझे आचार्यपद नहीं चाहिये । मुझे तो 'पद' चाहिये । 'पद' अर्थात् चरण, पांव । मुझे चरणों की सेवा चाहिये ।
हम पूज्यश्री के उपकार रूपी महामेरु के नीचे दबे हुए है, जिसे स्मरण करके हमारे आंसू सूखते नहीं हैं । बाल्यकाल से ही सुसंस्कार प्रदान करने के लिए पूज्यश्री ने जो कष्ट उठाये हैं, उन्हें याद करके अन्तर गद्गद् हो जाता है ।
चतुर्विध संघ के समक्ष मैं स्वीकार करता हूं कि पूज्यश्री के वन्दन लेने के लिए मैं सर्वथा अयोग्य हूं । वन्दन हो जाने के पश्चात्...
नूतन आचार्यश्री की हितशिक्षा
हम सब मिलकर वैचारिक आदि दृष्टि से पूज्यश्री के आदेश शिरोधार्य करें ।
छोटा बालक माता से बिछुड़कर स्वयं के लिए जोखिम खड़ी करता है, उस प्रकार गुरु से अलग होने में स्वयं पर जोखिम आता है । गुरुदेव का सतत सान्निध्य स्वीकार करने के लिए मन तैयार होना चाहिये ।
एकलव्य ने कहा था, 'गुरु की अपार भक्ति का यह फल है कि हृदय - सिंहासन पर द्रोणाचार्य गुरु प्रतिष्ठित हैं, चाहे वे स्वीकार करें या न करें ।'
इतनी गुरु-भक्ति उत्पन्न होने पर क्या होता है, यह तो जो अनुभव करता है वही जानता है ।
पारिवारिक डाक्टर, पारिवारिक वकील की तरह पारिवारिक गुरु भी होने चाहिये, जहां जाकर अपनी वेदना व्यक्त की जायें,
कहे कलापूर्णसूरि-२wwwwwwwwwww २१