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के लिए भगवान तड़प रहे हैं ।
हमारा तरने का मन नहीं होता क्योंकि सहजमल है । आप समझें उस भाषा में कहूं तो स्वार्थवृत्ति है । स्वार्थवृत्ति वालों में दया, परोपकार, दान आदि गुण न आयें तब तक धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता ।
अपनी दया, दया नहीं गिनी जाती । अपना उपकार, उपकार नहीं गिना जाता । स्वयं को किया गया दान, दान नहीं गिना जाता ।
जितने अंशो में दया, परोपकार आदि बढ़ते जाते हैं, उतने अंशो में समझ लें कि या तो सम्यक्त्व हो चुका है या होनेवाला
जब धर्म सूर्य निकट में उग रहा हो तब परोपकार का अरुणोदय होगा ही । मेघकुमार आदि इसके उदाहरण हैं ।
* देह के साथ का अभेदभाव छूट जाये तो प्रभु के साथ भेदभाव टूटे, अथवा प्रभु के साथ का भेदभाव छूटे तो देह के साथ का अभेदभाव टूटे, यह भी कहा जा सकता है ।
* नमस्कार हमें छोटा प्रतीत होता है, परन्तु ज्ञानी की दृष्टि उसमें जिन-शासन देखती है।
नमस्कार पर लिखने वाला मैं कौन होता हूं ? आज तक उस पर कितना-कितना लिखा जा चुका है। मैं नवीन क्या लिखूगा ? यह कह कर अपने पूर्याचार्यों ने इस नमस्कार पर नियुक्ति आदि लिखे हैं ।
* यहां आये हो तो इतना संकल्प कर ही लें कि 'दादा ! अब तो मैं समकित लेकर ही जाऊंगा ।'
खाली हाथ पुनः न जायें ।
मैं तो हठ लेकर बैठ जाऊं ! इन दादा को कैसे भूल सकता हूं? उन्हों ने ही यह सब किया है । अन्यथा मध्य प्रदेश के दूर स्थित ऐसे गांव में रहते थे, जहां धर्म-सामग्री अत्यन्त ही दुर्लभ थी । समेतशिखर जाता हुआ कोई एकल-दोकल साधु कभी मिल जाये, इतना ही । ऐसी स्थिति में धर्म की इतनी सुविधा कर देने वाला कौन है ?
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