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मैं भी पहले गभारे में जाता था, परन्तु मुझे लगा कि मुझे देखकर अन्य लोग सीखेंगे । गलत परम्परा शुरु होगी । मैंने अब गभारे में जाना बंद कर दिया । अब मुझे दूर से भी दर्शन करने में अत्यन्त ही आनन्द होता है ।
अन्य पाप कदाचित् नरक में ले जाते हैं, परन्तु आशातना तो निगोद तक ले जाती है ।
देव - गुरु की आशातना मिथ्यात्व के घर की है ।
मिथ्यात्व के उदय के बिना घोर आशातना की बुद्धि उत्पन्न होगी ही नहीं ।
"गुरु तो ऐसे हैं, वैसे हैं..." यह समझ कर कदापि गुरु की आशातना न करें ।
गौतम स्वामी जैसे गुरु प्राप्त करने के लिए पुन्य भी चाहिये न ? हां, आप गौतम स्वामी जैसे बनोगे तब महावीर स्वामी जैसे गुरु आपको मिल ही जायेंगे । इस समय आपकी योग्यतानुसार आपको जो गुरु मिले है उनका ही सम्मान करें ।
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मैं अपनी ही बात करता हूं । राजनादगांव से निकला तब तक मुझे पता नहीं था कि मेरे गुरु कौन होंगे ? कैसे होंगे ? किसी महात्मा का परिचय भी नहीं था । राजनादगांव में आये सुखसागरजी और रूपविजयजी को जानता था । सुखसागरजी खरतरगच्छीय थे और रूपविजयजी एकलविहारी थे । वे वल्लभसूरिजी के समुदाय के थे । तनिक स्वतन्त्र मस्तिष्क के अवश्य थे । कई बार मुझे विचार आता है कि कैसा पुन्योदय है कि मुझे अनायास ही ऐसा समुदाय मिला, हृदय गद्गद् हो जाता है । गुरु कदाचित् निर्बल हो तो भी क्या हो गया ? हमारे गुरु पू. कंचनविजयजी की प्रकृति कैसी थी ? यह बात पुराने महात्मा जानते होंगे ।
यशोविजयजी, विनयविजयजी, हेमचन्द्रसूरिजी, हरिभद्रसूरिजी को कैसे गुरु मिले थे ? गुरु की अपेक्षा ये चारों महात्मा अधिक शिक्षित थे, परन्तु उन्होंने गुरु भक्ति में कदापि कमी नहीं रखी । यशोविजयजी म. तो स्वयं को नयविजयजी के चरण- सेवक के रूप में कितने ही स्थानों पर पहचान देकर गौरवान्वित होते wwwwww कहे कलापूर्णसूरि - २
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