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________________ गई विद्या ही फलदायी बन सकती है । यही योगोद्वहन के द्वारा सीखना है। योगोद्वहन की सम्पूर्ण प्रक्रिया अपने भावरोग की दवा हैं । इन्द्रियों, कषायों आदि पर नियन्त्रण करने की शिक्षा योगोद्वहन के द्वारा मिलती है । * जिस पाप की निन्दा-गर्हा-प्रतिक्रमण न हो, वह पाप इतना बद्धमूल हो जाता है कि इस भव में तो नहीं, भवान्तर में भी नहीं जाता । इसीलिए ज्ञानियों ने हमें पापों से बचाने के लिए आलोचना - प्रायश्चित्त का विधान किया है । जिस पाप की आलोचना करने की इच्छा न हो, वह पाप निकाचित हुआ समझें । निकाचित् अर्थात् ऐसा पाप कि जो फल प्रदान किये बिना जाता ही नहीं । गुण ज्यों गुणों के अनुबंधवाले बनते हैं त्यों दोष, दोषों के अनुबंध वाले बनते हैं । मृत्यु से पूर्व भीतर पड़े शल्य नष्ट करने ही पड़ेंगे । उसके बिना समाधि-मृत्यु प्राप्त हो इस आशा में न रहें । आलोचना नहीं होने देने वाला, गुरु के समक्ष पाप प्रकट नहीं होने देने वाला अहंकार है । "मैं पापी से पापी हूं, नीच से भी नीच हूं।" ऐसा संवेदन देव-गुरु के पास कर सकें ऐसी मनःस्थिति जब तक न बने तब तक समझे - अभी तक भीतर अहंकार विद्यमान है। जहां अहंकार हो वहां धर्म कैसे आयेगा ? __अहंकार के आठ अड्डे हैं, जिन्हें हम मद के आठ स्थानों के रूप में पहचानते हैं । पू. कनकसूरिजी म.सा. अत्यन्त ही मधुर स्वर में सज्झाय बोलते थे । - "मद आठ महामुनि वारीए..." सुनने पर इतना आनन्द आता है। आज भी उन मधुर क्षणों का स्मरण होता है और हृदय गद्गद् हो उठता है । इस सज्झाय में आठों मदों के उदाहरण हैं - • जाति के मद से हरिकेशी । कहे कलापूर्णसूरि - २ as an asson 60 6000 60000 ३१३)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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