SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'तू गति तू मति आशरो...' ऐसे शब्द कब निकले होंगे ? जब भीतर प्रभु-प्रेम अस्थि-मज्जावत् बना होगा तब न ? नींद में भी प्रभु याद आते हैं, उनके उपकार याद आयें तब समझें कि 'अब मुझे प्रभु-प्रेम का रंग लगा है ।' नींद में करवट बदलने पर ओघे से पूंजनेवाले आचार्य के हृदय में प्रभु रमण कर रहे थे । प्रभु एवं प्रभु की आज्ञा भिन्न नहीं है। * भगवान ! इस निगोद के साथ या एकेन्द्रिय आदि जीवों के साथ हमारा क्या लेना-देना ? उन जीवों के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है ? ऐसा प्रश्न भगवान को पूछो तो भगवान कहते हैं - यह मत मानो कि इन समस्त जीवों के साथ आपका कोई सम्बन्ध नहीं है। समस्त जीवों के साथ आपका सम्बन्ध है । जीवास्तिकाय के रूप में सभी जीव एक हैं । जीव + अस्ति + काय - इन तीन शब्दों से जीवास्तिकाय शब्द बना हुआ है । जीव अर्थात् जीव, अस्ति अर्थात् प्रदेश, काया अर्थात् समूह । काल के प्रदेश नहीं हैं, क्षण हैं, परन्तु दो क्षण कदापि एक साथ नहीं मिल सकती । एक समय जाये, बाद में ही दूसरा आता है । असंख्य समय एकत्रित हो सकते हैं । जब जीव आदि के प्रदेश समूह में मिल सकते हैं, जीवास्तिकाय में अनन्त जीवो के अनन्त आत्म-प्रदेश हैं । इनमें से एक भी प्रदेश कम हो तब तक जीवास्तिकाय नहीं कहलाता । एक पैसा भी कम हो तब तक रूपया नहीं कहलायेगा, ९९ पैसे कहलायेंगे । समग्र जीवास्तिकाय के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ? यही साधु-जीवन में समझना है । आलस आलस अवगुणों का पिता है, निर्धनता की मां है । रोग की बहन है और जीवित व्यक्ति की कब्र है । कहे कलापूर्णसूरि - २Booooooooooooooooom २८५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy