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________________ ५. ऐसा करने पर भी न जाये तो मन को अन्य विचारों में लगा दें । ऐसा करने पर भी आवेश नहीं मिटे तो क्रोध के कटु फलों का चिन्तन करें । जिनके फल कटु हों, वैसे कृत्य क्यों करें ? ७. सन्त एवं अरिहंत कैसे शान्त होते हैं ? उनकी शान्ति हमारे भीतर क्यों नहीं आती ? भगवान सदा शान्त स्वरूपी हैं । यह स्वरूप भगवान भक्त को ही बताते हैं । _ 'भगवान रूप बदलते हैं ।' ऐसा अनेक व्यक्तियों को प्रतीत होता हैं । वास्तव में तो भगवान रूप नहीं बदलते, हमारे चित्त के परिणाम बदलते हैं । परिणाम बदलने पर प्रभु बदले हुए प्रतीत होते हैं । जब क्रोध आया हुआ हो तब ‘फोटो' न खिंचवायें । अन्यथा लोग समझेंगे कि यह मनुष्य नहीं, भूत है । क्रोध आया हुआ हो तब दर्पण में देखें । भूत के समान चहरा आपको अच्छा नहीं लगेगा । अतः आप शान्त हो जायेंगे । जिन प्रशान्त महापुरुषों को आपने देखा हो, पू. कनकसूरिजी, पू. देवेन्द्रसूरिजी आदि को याद करें । ८. क्रोध मोहनीय के कारण यह क्रोध आया है । अब यदि क्रोध करेंगे तो अधिकाधिक क्रोध-मोहनीय कर्म का बंध होगा । इस प्रकार विचार करें । ९. यदि उसे नहीं रोका गया तो उसकी श्रृंखला गुणसेन अग्निशर्मा आदि की तरह कितने ही भवों तक चलेगी। आवेश में यदि आप उत्तर देंगे तो सामने वालों को तीर की तरह आपके शब्द चुभेंगे और उनके हृदय में वैर का बोज बोया जायेगा। आप यह पहले विशेष रूप से सोचें कि क्रोधावेश में बोले गये मेरे शब्दों का क्या प्रभाव होगा ? १०. क्रोध मेरी ही शान्ति का शत्रु है । शत्रु को मैं अपने आत्मप्रदेशों में स्थान कैसे दे सकता हूं? दूसरे भले हीं दें, मैं कैसे दे सकता हूं? (२८० 65000 somooooomnG कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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