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________________ बन गये । पू. उपाध्याय महाराज के चाबखे सुनने योग्य हैं । "निर्दय हृदय छ: काय मां, जे मुनि वेषे प्रवर्ते रे; गहीयति लिंगथी बाहिरा, ते निर्धन गति वर्ते रे ।" * साधु स्वयं तीर्थ रूप हैं। तीर्थ की तरह लोग साधुओं के दर्शन करने के लिए आते हैं । ___ "साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः ।" ऐसे साधुओं को नमन करने की इच्छा कब होती है ? जब पूर्व के कोई पुन्य जागृत हुए हों तब । * “सोनातणी परे परीक्षा दिसे ।" स्वर्ण को ज्यों ज्यों तपाओगे, त्यों त्यों अधिकाधिक चमकेगा। यदि आप साधु की परीक्षा करो तो अधिकाधिक देदीप्यमान बनेगा । ऐसे साधु इस काल में नहीं दिखाई दें तो देश-काल के अनुसार साधना करने वाले साधुओं में गौतम स्वामी के दर्शन करें । * "अप्रमत्त जे नित्य रहे ।" । जो नित्य अप्रमत्त रहे, अनुकूलता में प्रसन्न न हो, प्रतिकूलता में उदास न हो, ऐसी हमारी आत्मा ही नैश्चयिक दृष्टि से साधु प्रभु-प्राप्ति के चार सोपान प्रीतियोग - प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम विकसित करना । भक्तियोग - सर्वस्व समर्पण की भूमिका तक पहुंचना । वचनयोग - प्रभु-आज्ञा को जीवन-प्राण समझ कर उसका पालन करना । असंगयोग - उपर्युक्त तीनों योगों के क्रमिक एवं सतत अभ्यास से एक ऐसी अवस्था आती है कि जिसमें आत्मा सर्व संग से निर्लिप्त होकर अनुभवगम्य अपरिमेय आनन्द प्राप्त करने लगती है । ___- पू.आ.श्री कलापूर्णसूरीश्वरजी द्वारा लिखित ____'मिले मन भीतर भगवान' पुस्तक से । (१६० 0000000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि- २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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