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व्यक्ति भोजन के लिए खोज करेगा ही । प्यासा व्यक्ति पानी के लिए खोज करेगा ही । मोक्ष के लिए उपायों (ज्ञान आदि) के लिए हम प्रयत्न नहीं करते, इसका अर्थ यह है कि मोक्ष की रुचि नहीं हैं ।
* मोक्ष हमारे भीतर है, भगवान हमारे अन्तर में बैठे हैं, परन्तु उन्हें प्राप्त करने की तीव्र उत्कण्ठा न हो तब तक उनके दर्शन कैसे हो सकते हैं ? दर्शन न हो यह भी संभव है, परन्तु उसके लिए हमें कोई अखरे नहीं, विरह न लगे, यह कैसे चलेगा ? विरह के अनुपात में ही दर्शन मिलेगा । जितने प्रमाण में विरह का अनुभव करोगे उतने प्रमाण में दर्शन कर सकोगे । जितनी भूख लगी होगी उतना भोजन आप पचा सकोगे ।
* प्रश्न " पारग - धारग तास ।" यहां पहले 'धारक' और फिर 'पारक' चाहिये न ?
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उत्तर नहीं, जो है वह बराबर है । कोई भी ग्रन्थ पूर्ण करने के बाद आप उसके 'पारक' कहलायेंगे । पारक अर्थात् पार प्राप्त किया हुआ । फिर क्या करना ? वह ग्रन्थ भूल जाना ? नहीं; उसे धारण किये रखना है । इसीलिए पहले पारग और फिर धारग । उपाध्याय भगवन् बारह अंगो के पारग और धारग होते हैं ।
हम पारग-धारग बने बिना ही आगे बढ़ते रहते हैं, इसीलिए सब गड़बड़ होती रहती हैं। पांच प्रतिक्रमण के सूत्रों में भी क्या हम पारग - धारग बने ?
सूत्र, अर्थ एवं तदुभय से ये सूत्र आत्मसात् होने चाहिये । पूज्य हरिभद्रसूरि के शब्दों में कहूं तो श्रुत, चिन्ता एवं भावना ज्ञान तक पहुंच जाना चाहिये ।
श्रुतज्ञान पानी के समान है, चिन्ता ज्ञान दूध के समान है और भावना ज्ञान अमृत के समान है ।
आदान-प्रदान बंध हो जाने से, विनियोग बंध हो जाने से ध्यान आदि की अनेक परम्पराऐं बंध हो गई है । अब वह परम्परा कैसे प्राप्त की जाये ? इसी लिए बुद्धिमान का यह कार्य है कि स्वयं को जो उत्तम परम्परा मिली है, उसे आगे चलाये,
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१८८८ कहे कलापूर्णसूरि - २