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इसी प्रकार का एक ग्रन्थ 'कहे कलापूर्णसूरि' वि.सं. २०५६, माद्य शु. ६ को प्रकाशित हुआ, जिसमें वांकी तीर्थ में पूज्यश्री द्वारा दी गई वाचनाओं का सार था । उस ग्रन्थ (गुजराती) की इतनी अधिक मांग आई कि मत पूछो बात । आज भी उक्त मांग निरन्तर चालु ही है । इस पर हमें ध्यान आया कि पूज्यश्री के वैचारिक विश्व का परिचय प्राप्त करने के लिए लोग कितने आतुर हैं ? वाणी से ही आदमी के विचार ज्ञात होते हैं ।
पूज्यश्री के दर्शनार्थ निरन्तर उमड़ती लोगों की अपार भीड़ हमें स्थान-स्थान पर देखने को मिली है । कोई आयोजन या किसी भी प्रकार का प्रचार नहीं होने पर भी मनुष्य की निरन्तर उमड़ती भीड़ दूसरों को तो ठीक परन्तु सदा साथ में रहनेवाले हम को भी आश्चर्य चकित कर देती है ।
कईबार मन में विचार आता है कि साक्षात् तीर्थंकर भले ही देखने को नहीं मिले, परन्तु उनके पुन्य की तनिक झलक हमें यहां देखने को मिली, यह भी हमारा अहोभाग्य है । भगवान का निरन्तर ध्यान करनेवाले का भी इतना पुन्य हो तो साक्षात् भगवान का पुन्य कैसा होगा ?
अरिहंत परमात्मा पुन्य के भण्डार माने गये हैं । उनका ध्यान करनेवाला भी पुन्यवान् बनेगा ही, जिसका उत्तम उदाहरण पूज्यश्री हैं ।
पूज्यश्री का जीवन, उनकी कमनीय काया, नित्य निरन्तर प्रसन्नता से छलकता उनका चेहरा आदि देखकर हमें सिद्धयोगी के लक्षणों का स्मरण हो आता है ।
'शांर्गधरपद्धति' नामक अजैन ग्रन्थ में योगी के प्राथमिक चिन्ह इस प्रकार बताये गये हैं
अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं, गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् । कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च, योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि चिह्नम् ॥
(स्कन्दपुराण, श्वेता श्वतर उपनिषद् आदि में भी ऐसा ही श्लोक है । हमारे योग ग्रन्थों में भी श्री हरिभद्रसूरिजी के द्वारा इस श्लोक का उद्धरण हुआ है ।) निर्लोलुपता, आरोग्य, कोमलता, देह में सुगन्ध, मूत्रादि की अल्पता, देह पर चमकती आभा, चेहरे की प्रसन्नता,