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ज्ञान चारित्र का हेतु बन सकता है ।
ज्ञानसार में कहा है - जिस ज्ञान से हीरे एवं पत्थर को नहीं पहचान सको, उस हीरे का ज्ञान, ज्ञान ही नहीं है। जिस ज्ञान से दोष-निवृत्ति एवं गुण-प्रवृत्ति न हो, वह ज्ञान ही नहीं कहलाता ।
वह आंख किस काम की जिसके होते हुए भी पांव खड्डे में या कांटे में पड़े ?
ज्ञान का फल आत्मानुभूति है । आत्मानुभूति का फल मोक्ष है । दोष तथा गुण दोनों ज्ञान से जाने जाते हैं । कांटे एवं फूल दोनों आंखों से ही जाने जाते हैं, परन्तु आंखे देखने के बाद उदासीन नहीं रहतीं, वे कांटे से दूर रहती है, फूल को स्वीकार करती है। क्या हमारा ज्ञान ऐसा है ?
दूसरों के नहीं, अपने दोष देखने हैं । अपने नहीं, परन्तु दूसरों के गुण देखने हैं। लेकिन हम उल्टा करते हैं। दूसरों को देखने के लिए हमारे पास हजार आंखें हैं, परन्तु स्वयं को देखने के लिए एक भी आंख नहीं है।
घर में यदि सांप का बिल प्रतीत हो तो कोई उसे निकाले बिना रहेगा ? दोष ही बिल हैं । हमें दिखाई दे फिर भी नहीं निकालें तो क्या समझना चाहिये ? भगवान ने समस्त जीवों के साथ मैत्री करने का कहा है। हमने दोषों के साथ मैत्री कर ली ।
दोषों से संग्राम करना ही पड़ेगा । आज तक मोहराजाने सामने से किसी को आत्मा का खजाना दिया हो वैसा नहीं हुआ । जिन्होंने संग्राम किया, वे ही विजयी हुए हैं ।
* भगवान के गुण अनन्त-अनन्त है - यह समझ कर चकित होने की आवश्यकता नहीं है। हमारे भीतर भी अनन्त-अनन्त गुण विद्यमान ही हैं । वे केवल ढके हुए हैं। इतना ही अन्तर है ।
"ज्ञान-दर्शन अनन्त छ, वली तुज चरण अनन्त; एम दानादि अनन्त क्षायिकभावे थया, गुण ते अनंतानंत । आविरभावथी तुज सयलगुण माहरे, प्रच्छन्नभावथी जोय..."
- पद्मविजय भगवान से आप यह याचना करें कि 'भगवन् ! मेरे भी ये गुण प्रकट हों ।'
(८४00ommonommmmmmmmm कहे कलापूर्णसूरि - २)