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इसी कारण से पूज्यश्री इस समय जैन जगत् में भक्ति के पर्याय के रूप में विख्यात एवं लोकप्रिय हो गये हैं ।
पूज्यश्री का प्रभु-प्रेम देखकर हमें नरसिंह महेता की इस पंक्ति का स्मरण हो जाता है :
'प्रेम-रस पाने तू मोरना पिच्छधर ! तत्त्वY ढूंपणुं तुच्छ लागे' चाहे जितनी तत्त्वों की बात आये तो भी अन्त में भगवान या भगवान की भक्ति की बात पूज्यश्री के प्रवचन में आ ही जाती है।
। वाचना की यह प्रसादी पाठकों के हृदय में प्रसन्नता की लहर फेलाये, प्रभु के प्रति प्रेम उत्पन्न करे, ऐसी अपेक्षा है।
कतिपय स्थानों पर भक्ति आदि की बातों की पुनरुक्ति होती भी प्रतीत होगी । वहां प्रशमरति में से पूज्यश्री उमास्वाति की बात याद करनी चाहिये ।
वैराग्य, भक्ति आदि की बातें पुनः पुनः करने से, श्रवण करने से और समझने से ही वे अन्तर में भावित होती हैं। अतः वैराग्य आदि में पुनरुक्ति दोष नहीं है । ००१ यद्वद् विषघातार्थं मन्त्रपदे न पुनरुक्तदोषोस्ति । तद्वद् रागविषघ्नं पुनरुक्तमदुष्टमर्थपदम् ॥
प्रशमरति - १३ 0 कतिपय स्थानों पर पूज्यश्री के आशय को अपने समक्ष रखकर हमने हमारी भाषा में भी आलेखन किया है । सह पूज्यश्री के आशय के विपरीत कुछ भी आलेखन हुआ हो तो एतदर्थ हार्दिक मिच्छामि दुक्कडं...
- पंन्यास मुक्तिचन्द्रविजय
- गणि मुनिचन्द्रविजय वांकी तीर्थ, वि.सं. २०५६
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भगवानना भक्त, शासन प्रभावक परम पूज्य आचार्य वि. कलापूर्णसू. म.सा.ना कालधर्म पाम्याना समाचार सांभळतां ज अमो हतप्रभ थया अने रड़ती आंखे रड़ता हृदये संघनी साथे समूहमा देववंदन कर्या ।
- एज... आचार्य हिरण्यप्रभसूरिनी अनुवंदना