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यह ध्यान में रखे । ज्यों ज्यों इन सब से निःस्पृहता बढ़ती जायेगी, त्यों त्यों आनन्द बढ़ता जायेगा । इसी जीवन में इसका अनुभव किया जा सकता है ?
निःस्पृहता अर्थात् समता, समता में सुख ।
स्पृहा अर्थात् ममता, ममता में दुःख । • शक्ति के रूप में (बीज रूप में) हम परमात्मा है, परन्तु व्यक्ति के रूप में इस समय अन्तरात्मा बने तो भी बहुत है ।
इस समय हम यदि बहिरात्मा हैं तो शक्ति से अन्तरात्मा एवं परमात्मा हैं । यदि हम अन्तरात्मा हैं तो शक्ति से परमात्मा हैं ।
. वाणी का प्रयोग कहां तक ? काया की - मन की प्रवृत्ति कहां तक ?
केवली भी तीनों योगों का निरोध चौदहवे गुण स्थानक में करते हैं । इसका अर्थ यह हुआ - तीनों योगों की सम्यक् प्रवृत्ति केवली को भी होती है ।
'परमात्मा तो परब्रह्म स्वरूपी है ही, परन्तु हम तो उनके वचनों से भी परब्रह्म की झलक का अनुभव करते हैं', इस प्रकार यशोविजयजी खुमारीपूर्वक कहते हैं । यह अभिमान नहीं है, अनुभव की झलक से उत्पन्न होनेवाली खुमारी है ।
. ज्ञानसार में 'ब्रह्माध्ययन निष्ठावान्' आता है। ब्रह्माध्ययन कौन सा समझे? परब्रह्म-अध्ययन अर्थात् आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध ।
. 'प्रभु-पद वलग्या ते रह्या ताजा, अलगा अंग न साजा रे' - पद अर्थात् चरण । चरण का अर्थ पैर के अलावा चारित्र भी है, चारित्र अर्थात् आज्ञा-पालन । जिन्होंने आज्ञा-पालन किया वे तर गये और जिन्होंने आज्ञा-भंग किया वे डूब गये ।
• पू. उपाध्याय महाराज निखालस रूप से अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहते है :
__ अवलम्ब्येच्छायोगं पूर्णाचारासहिष्णवश्च वयम् । . भक्त्या परममुनीनां, तदीय - पदवीमनुसरामः ॥
इच्छायोग का आलम्बन लेकर हम चारित्र का पालन करते हैं । पूर्ण आचार का पालन करने के लिए हम समर्थ नहीं हैं। परम मुनियों की भक्ति से हम उनके मार्ग का अनुसरण करने का
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