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देखते रहे । आत्मा का निर्गमन तो नहीं दिखता, लेकिन श्वासप्राण की विदाई किस प्रकार होती है, वह नज़र के सामने देखा । मृत्यु को इतनी निकटता से देखने का यह पहला अवसर था ।
मां ने अंतिम सांस ली और आंखें भर गई - एकदम, हृदय गद्गद हो गया । मन के भीतर शूनकार छा गया । बंध आंखों में आंसु बहाये - भीतर अंधकार के अलावा कुछ भी नहीं था ।
सर्व संबंधो में सर्वोत्कृष्ट संबंध मां का है। चाहे जैसे संयोगो में मां ही ऐसी होती है जो अपने संतान का आत्यन्तिक रूप से हित ही चाहती है।
मां की उपमा हम भगवान को देते है, गुरु को देते है, लेकिन मां को किसकी उपमा दी जाय ? मां को कोइ विशेषण की, उपमा की जरूरत नहीं है । मां निरुपम है।
कितना कष्ट सह कर वह जन्म देती है ? कितना कष्ट सह कर वह अपने संतानों का पोषण करती है। कितने कष्ट सह कर उन्हें वे आत्मनिर्भर बनाती है ।
हमें धर्म के संस्कार मां ने ही दिये, दीक्षा के भाव भी मां ने ही जगाये । . मां ने अगर दीक्षा न ली होती तो हम कभी दीक्षा नहीं लेते ।
जिनके उपकार का बदला न दिया जा सके ऐसी मां चली जाय तो किस पुत्र के हृदय को झटका न लगे ?
९९ दिनों में दोनों शिरछत्र चले गये । भावि-भाव कौन मिटा सकता है ?
वे (मां महाराज) मानो हम दोनों भाईओं की प्रतीक्षा करते ही बैठे हो, वैसे हमें देख कर एकदम प्रसन्न हुए, सुखसाता पूछी, अपनी तकलीफ की बात कही । उपयोग नवकार के श्रवण - स्मरण में ही था । हमने भी एक घंटे तक नवकार सुनाये ।
निर्मोही मां हमें छोड़ कर चल बसी । बस ! अंतिम दिन में अंतिम तीन घंटे उनके पास द्रव्यतः हमारा आगमन हुआ और भावतः नवकार मंत्र का श्रवण कराया । इस प्रकार हम उनकी समाधि में सहायक बने उसका आनंद भी रहा ।
आनंद और विषाद के मिश्र भावों में मन उद्विग्न - गमगीन रहा ।
स्वर्गस्थ पिता गुरुदेव और मां महाराज स्वर्गलोक में से हम (कहे कलापूर्णसूरि - १ ********