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अपार मानव-भीड़ के बीच पूज्यश्री के अग्नि-संस्कार,
शंखेश्वर, दि. १८-२-२००२
२३-११-१९९९, मंगलवार
का. सु. १५
'प्रगट्यो आतम-धर्म थया सवि साधनरीत, बाधक-भाव ग्रहणता भागी जागी नीत;
उदय उदीरणा ते पण पूरव निर्जराकाज, अनभिसंधि बंधकता, नीरस आतमराज' ॥ ३० ॥
. यह प्रतिमा कोई खिलौना नहीं है । यह साक्षात् प्रभु का रूप है । भक्त उसमें प्रभु को ही देखता है।
आगे बढकर भक्त प्रभु के नाम में भी प्रभु को देखता है । प्रिय व्यक्ति के पत्र में जैसे पत्र पढनेवाले व्यक्ति के ही दर्शन करते है, उस प्रकार प्रभु के नाम में भक्त प्रभु का ही दर्शन करता
जगत् के समस्त व्यवहारों में हम नाम तथा नामी के अभेद से ही चलाते हैं, परन्तु यहीं (साधना में ही) रुकावट आती है। रोटी का नाम आते ही रोटी याद आती है । घोड़ा कहते ही घोड़ा याद आता है, परन्तु प्रभु बोलते ही प्रभु याद नहीं आते ।
. व्यक्ति दूर है कि निकट यह महत्त्व की बात नहीं है, उस पर बहुमान कितना है, यही महत्त्व की बात है । कहे
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