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समझ में आई । इसीलिए उन्होंने हरिभद्रसूरिको अपने गुरु माने ।
'उपमिति' के प्रथम प्रस्ताव में उन्होंने उन्हें इस प्रकार याद किये हैं -
'नमोऽस्तु हरिभद्राय, तस्मै प्रवरसूरये ।
मदर्थं निर्मिता येन, वृत्तिर्ललितविस्तरा ॥' 'उन हरिभद्रसूरि को नमस्कार हो, जिन्होंने मानो मेरे लिए ललित विस्तरा टीका बनाई ।'
छिद्र के बिना मोती में डोरा नहीं पिरोया जा सकता, उस प्रकार अभिन्न-ग्रन्थि में गुण नहीं आते । (संस्कृत में 'डोरे' के लिए 'गुण' शब्द भी है।)
वह अन्य के लिए शायद उपयोगी हो सकता है, परन्तु स्व के लिए थोड़ा भी नहीं । वह भेद-प्रभेद सब गिना देगा, परन्तु भीतर नहीं उतरेगा, उसमें विषय-प्रतिभास ज्ञान ही होगा ।
आत्म-परिणतिमत् ज्ञान चौथे गुणस्थानक से और तत्त्व संवेदन ज्ञान छ8 गुणस्थानक से होता है ।
आज्ञायोग गुरु-लाघव से होता है । गुरु-लाघव विज्ञान है। गुरु-लाघव अर्थात् लाभ-हानि का विचार ।
व्यापारी जिस प्रकार व्यापार में लाभ-हानि का विचार करता है उस प्रकार संयमी भी संयम में लाभ-हानि का विचार करते है।
उत्सर्ग या अपवाद दोनों में लाभदायक हो, उसका प्रयोग करे । उपदेश-पद की टीका में यह लिखा हुआ है । अध्यात्म गीता :
केवल ४९ श्लोकों में 'अध्यात्म' का पू. देवचन्द्रजी द्वारा खींचा गया शब्दचित्र वास्तवमें अद्भुत हैं ।
__ मैंने ५० वर्ष पूर्वे ये ४९ श्लोक कण्ठस्थ किये थे । वि. संवत् २०१७ में राजकोट में प्रथम बार देखा कि श्रावक इन श्लोकों का पाठ कर रहे थे । मुझे आनन्द हुआ ।।
___ 'सम्यग्रत्नत्रयीरस राच्यो चेतनराय,
ज्ञानक्रिया चक्रे, चकचूरे सर्व अपाय;
कारक चक्र स्वभावथी, साधे पूरण साध्य, कर्ता कारण कारज, एक थया निराबाध' ॥ २८ ॥ कहे कलापूर्णसूरि - १ ********
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