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कई जीव सद्गुरु के सम्पर्क से राग-द्वेष की तीव्र ग्रन्थि तोड़कर आत्म-शक्ति प्रकट करते हैं, सम्यग्दर्शन प्रकट करते हैं। यहां होनेवाला ज्ञान विषय प्रतिभास नहीं, परन्तु आत्मपरिणतिमान ज्ञान होता है । इतना हो जाये तो मानव जीवन सफल । सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर भेद ज्ञान होता है, शरीर से आत्मा की भिन्नता की अनुभूति होती है । कतिपय जीव मरुदेवी माता की तरह गुरु के बिना भी ग्रन्थि - भेद कर लेते हैं । 'द्रव्य गुण पर्याय अनन्तनी थई परतीत,
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जाण्यो आतमकर्ता-भोक्ता गई परभीत;
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श्रद्धा-योगे उपन्यो भासन सुनय सत्य,
साध्यालंबी चेतना वलगी आतम-तत्त्व' ॥ २० 11 केवलज्ञान आदि के अनन्त पर्यायों की प्रतीति हुई । मेरी आत्मा स्वगुणों की कर्ता भोक्ता है, उसकी खात्री हो गई, जिससे पर- पुद्गल का भय टल गया । ऐसी श्रद्धा के कारण सुनय का ज्ञान मिला (अन्य नयों को मिथ्या न कह कर अपना मण्डन करें वह सुनय कहलाता है), ऐसी चेतना साध्य तत्त्व का आलम्बन लेकर आत्म-तत्त्व को लिपटी रहती है 1
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आ पुस्तक स्वाध्याय माटे / आत्मिक विकास माटे घणुं ज
सुंदर छे. वांचवानुं शरु कर्युं छे.
(कहे कलापूर्णसूरि- १ ***:
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मुनि संवेगवर्धनविजय घाटकोपर, मुंबई.
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