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गाथा १६ :
भगवान (अनस्त) सदैव उगा हुआ सूर्य है । केवलज्ञान रूपी सूर्य अस्त नहीं होता । अप्रकट दीपक को प्रकट (प्रज्वलित) होना हो तो प्रज्वलित (प्रकट) दीपक के पास जाना पड़ता है । हम अप्रकट है, प्रभु के पास जाना पड़ेगा।
. प्रभु के दर्शन से संसार हरा-भरा नहीं रखना है, परन्तु छोड़ना है।
गाथा १७ : . ज्ञानातिशय से ज्ञान-दीपक प्रकट होता है ।
हमारी चेतना खण्डित है । प्रभु के पास अलग और दूसरी जगह अलग बात करें, इसमें भक्ति का अनुसन्धान कहां से रहे ?
अनुसन्ध्यानात्मिका भक्ति चाहिये । चार पूजा :
अंग, अग्र, भाव, प्रतिपत्ति पूजा । प्रतिपत्ति पूजा अर्थात् आज्ञापालन ।
आज्ञापालन रूप पूजा आये तो भगवान के साथ अभेद सधता
गाथा १८ : भगवान का चारित्र यथाख्यात है, कहीं भी न्यूनता नहीं है। - अनन्तविज्ञानःज्ञानातिशय अतीतदोष:अपायापगमातिशय । अबाधसिद्धान्त : वचनातिशय, अमर्त्यपूज्य : पूजातिशय ये चार विशेषण कलिकाल - सर्वज्ञ ने दिये हैं । गाथा १९ :
• सिर्फ केवलज्ञानादि के साथ नहीं, प्रभु ! आपके साथ मुझे ओतप्रोत होना है ।
खेत में अन्न पक जाने के बाद वर्षा की आवश्यकता नहीं रहती, उस प्रकार आप के साथ ओतप्रोत होने के बाद आपकी आवश्यकता नहीं है ।
गाथा २०, ज्ञानं यथा...
रत्न का तेज कांच में नहीं आता । प्रभु ! आपके जैसा केवलज्ञान का तेज अन्य देवों में नहीं हो सकता । कहे कलापूर्णसूरि - १ ******
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