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मिलेगी कि हम भी ऐसा करावें । दीक्षा, प्रतिष्ठा अथवा उपधान जो अनुष्ठान दिखाई दे वे कराने की इच्छा मनुष्य को होती रहती है।
. चौदहपूर्वी अन्त में शायद सब भूल जाये, परन्तु नवकार नहीं भूलते । नवकार इस भव में ही नही, भव-भव में भूलने का नहीं है।
* भैंस आदि खाने (चरने) के बाद वागोलती है, उस प्रकार आप यहां सुने हुए पदार्थो को वागोलते रहें। यहां तो सूत्रात्मक रूप में दिया है । इसका विस्तार बाकी है, मन्थन बाकी है ।
'उपयोगो लक्षणम्' आदि कितने गम्भीर अर्थ-सूचक सूत्र हैं ? उन पर जितना चिन्तन करें उतना कम है ।
. इस अनुष्ठान में आराधकों की ओर से आयोजकों की अथवा आयोजकों की ओर से आराधकों की कोई शिकायत नहीं आई । ऐसा बहुत कम स्थानों पर होता है ।
- पंच परमेष्ठी अरिहंत का ही परिवार है । गणधर (आचार्य) अरिहंत के शिष्य है । उपाध्याय गणधरों के शिष्य है । साधु उपाध्यायों के शिष्य हैं । 'सिद्ध' इस सब का फल है । " भगवान का शरण चार स्थानों से प्राप्त होता है । चार स्थान अर्थात् चार फोन के स्थान समजें । नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव ।
जाप से नाम की, मूर्ति से स्थापना की, आगम से द्रव्य की और शुद्ध आत्मद्रव्य से भाव अरिहंत की उपासना हो सकती है ।
यदि इन चारों का सम्पर्क करेंगे तो भगवान मिलेंगे ही । इन प्रभु को आप क्षण भर के लिए भी छोड़ोगे नहीं ।
बन्दर के बच्चे की तरह हमें भगवान से लिपट कर रहना है। यदि भगवान को छोड़ दिया तो हमारा कच्चरघाण निकल जायेगा ।
'प्रभु पद वलग्या ते रह्या ताजा, अलगा अंग न साजा रे...'
प्रभु को लिपटना अर्थात् उनकी आज्ञा को लिपटना । बन्दर का बच्चा यदि माता को छोड़ दे तो ? कहे कलापूर्णसूरि - १ *******
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