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प्रतीत होता है। __ पर की दया अपनी ही दया है; ऐसी दृष्टि यहां खुलती है ।
विरति धर्म का शुद्ध पालन तो ही हो सकता है । यहां से जाने से पूर्व बारह व्रत ले लें । सामान्यतया अहिंसा आदि का पालन जैनों में होता ही है । क्या आप जान-बूझकर जीवों को मारते हैं ? क्या आप चींटियों या मकोड़ों पर जान-बूझकर पांव रखते हैं ? जैन संतान स्वाभाविक रूप से ही ऐसा नहीं करेगा । अब सिर्फ व्रत लेने की आवश्यकता है ।
. पटु, अभ्यास एवं आदर में इन तीन प्रकार से संस्कार पड़ते हैं ।
१. पटु : उदाहरणार्थ, युरोप में हाथी नहीं होते । किसीने उन्हें हाथी बताया । उन्होंने घूरकर देखा, दो-चार बार देखा । अब वे कभी नहीं भूलेंगे । यही बात धर्म-कार्य पर घटित करनी चाहिये ।
२. अभ्यास : देलवाडा आदि की नकाशी देखी है ? कैसे की होगी ? यह अभ्यास का फल है । यहां ऐसे वैद्य थे कि नाड़ी देखकर रोग बता देते थे । ऐसे पगी थे जो अज्ञात व्यक्ति के पद-चिन्ह खोज निकालते थे । यह सब अभ्यास का फल है । जितना मजबूत अभ्यास होगा, उतने प्रगाढ संस्कार पड़ेंगे ।
३. आदर : भव-भव में साथ चले वह । कोई दिव्य अनुभूति होने से ऐसा आदर उत्पन्न होता है जो भव भव तक नहीं जाता ।
इन तीनों के प्रभाव से ही भगवान जन्मजात वैरागी होते हैं । पूर्वभव के संस्कार इस भव में आ सकते हों तो इस भव के संस्कार आगामी भव में नहीं आयेंगे ? इस भव में अब कैसे संस्कार डालने हैं ? यही आपको विचार करना है ।
इस तीर्थ में उत्तम भाव प्रभु के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं । वे भाव सदा बने रहें, जन्म-जन्मान्तर में साथ चलें, उन्हें 'अनुबन्ध' कहा जाता है।
जो शुभ भाव नहीं है, उन्हें प्रभु उत्पन्न करते हैं । जो भाव हैं उन्हें स्थिर करते हैं । इसीलिए प्रभु नाथ हैं । प्राप्ति एवं सुरक्षा करानेवाले नाथ कहलाते हैं ।
प्राप्त गुणों का संवर्धन एवं उनकी सुरक्षा परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट
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