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________________ - 'नाम ग्रहंतां आवी मिले, मन भीतर भगवान' यह कहने वाले उपाध्याय मानविजयजी के हृदय में भगवान आ सकें तो हमारे हृदय में क्यों नहीं आ सकते ? इन महापुरुषों के वचनों में विश्वास तो है न ? इन वचनों पर विश्वास रखकर साधना के मार्ग में अग्रसर होओगे तो मानविजयजी की तरह आपको भी ऐसा अनुभव होगा । . माली बीज में.वृक्ष देखता है । शिल्पी पत्थर में प्रतिमा देखता है। भक्त प्रभु के नाम में प्रभु को देखता है । धर्म के प्रति प्रेम है ? धर्म अर्थात् मोक्ष । धर्म मोक्ष का कारण है । कारण में कार्य का उपचार हो सकता है । मोक्ष के प्रति प्रेम हो तो धर्म के प्रति क्यों नहीं ? आपको तृप्ति प्रिय है कि भोजन ? तृप्ति प्रिय है ? भोजन के बिना तृप्ति किस प्रकार मिलेगी .? धर्म के बिना मोक्ष कैसे मिलेगा ? मोक्ष पर प्रेम हो तो धर्म पर प्रेम होना ही चाहिये । . भक्ति अर्थात् जीवन्मुक्ति । जिसने ऐसी भक्ति का अनुभव किया हो वह कह सकता है कि 'मुक्ति थी अधिक तुज भक्ति मुज मन वसी' क्योंकि भक्ति में मुक्ति जैसा आस्वाद हो रहा है उसे । . केवलज्ञान बड़ा कि श्रुतज्ञान ? अपने अपने स्थान पर दोनों बड़े हैं, परन्तु अपने लिए श्रुतज्ञान बड़ा है। यही हमारा उपकारी है । सूर्य भले ही बड़ा है, परन्तु तलघर में रहनेवाले के लिए दीपक ही बड़ा है । • इन वीतराग जिनेश्वर देव को आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश, बुद्ध आदि समस्त नामों से पुकार सकते हैं । उन उन नामों की व्याख्या भगवान में घटित कर सकते हैं । __ भगवान ब्रह्मा हैं, क्योंकि वे परब्रह्म स्वरूपी हैं । भगवान विष्णु हैं, क्योंकि केवलज्ञान के रूप में विश्व-व्यापी भगवान शंकर है, क्योंकि सब को सुख-दाता हैं । भगवान बुद्ध है, क्योंकि केवलज्ञानरूपी बोध को प्राप्त किये हुए हैं। भगवान कृष्ण हैं, क्योंकि कर्मों का कर्षण करते हैं । कहे व -१ ******************************३५७
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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