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जाने का आदेश देदे !
प्रभु के प्रेष्य बनने के लिए मन की ऐसी भूमिका होनी चाहिये कि स्वामी जहां भेजे वहां जाने के लिए तैयार हूं ।
गुरु के आदेश से सांप को पकड़ने के लिए जाने पर शिष्य की खूध सीधी हो गई, फिर गुरु ने उसे रोक दिया ।
'आज्ञा गुरूणामविचारणीया ।' अजैनों में कथा आती है :
रात्रि में नागदेव शिष्य का खून लेने के लिए आते है - गुरु को यह मालुम हो गया । छुरी लेकर छाती पर चढकर खून निकाल कर नागदेव को पिलाया, नागदेव चले गये । प्रातः शिष्य को पूछा, 'तेरे भीतर कौनसा भाव उत्पन्न हुआ था जब मैं तेरी छाती पर चढकर बैठा था ?'
शिष्य ने उत्तर दिया : 'आप मेरे गुरु हैं, उचित लगे वह कर सकते हैं ।' उसके बाद गुरु ने आत्म-साक्षात्कार की विद्या दी । क्या हमारी ऐसी भूमिका है ?
२. दास : प्राचीन काल में दास - दासियों के रूपमें मनुष्य बिकते थे । चन्दना का उदाहरण प्रसिद्ध है ।
जिसे खरीद कर लिया गया हो, वह 'दास' कहलाता है । आज की भाषा में उसे गुलाम कहते हैं । 'क्रयक्रीतः दासः ।' उसके देह पर निशानी की जाती थी । वह आजीवन दास बन कर रहता, दासत्व करता ।
उत्तम दास = सम्यक् सेवायां निपुणः । किस समय स्वामी को क्या चाहिये, यह स्वामी को कहना न पड़े ।
संसार के दास तो अनेकबार बन चुके हैं, प्रभु के दास कभी नहीं बने । जो प्रभु का दास बनता है, उसकी दास सारी दुनिया बनती है। जो भगवान का दास नहीं बनता उसे संसार का दास बनना पड़ता है।
३. सेवक : सेवते इति सेवकः । सेवा करे वह सेवक ।
भगवान के चरणों की सेवा किस प्रकार हो सकती है ? चन्दन आदि से पूजा करनी द्रव्य सेवा है । आज्ञा-पालन, विरति स्वीकार करना भाव-सेवा है। 'चरण' का दूसरा अर्थ चारित्र होता है । चारित्र का सेवन करना भी चरण-सेवा कहलाती है ।
*** कहे कलापूर्णसूरि - 8
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कहे