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भरे होंगे ?
भगवान की भक्ति भरी है चैत्यवन्दन में ।
सिर्फ नाम के सहारे अन्य दर्शनी समाधि तक पहुंचे हैं, तो हम भगवान की भक्ति की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ?
रामकृष्ण परमहंस जब मां काली को देखते या नाम सुनते तो वे भावावेश में आ जाते थे ।
प्रभु का नाम, प्रतिमा या आगम आपके पास है तो प्रभु आपके पास ही हैं । कहीं नहीं गये हैं भगवान ।
'जगचिन्तामणि' सूत्र आगम है न ? आवश्यक सूत्र है ।
उसके अर्थ, रहस्य आदि पर चिन्तन करेंगे तो नाच उठोगे । 'अट्ठा - वय संठविअरूव' अष्टापदपर स्थित मूर्तियों के समक्ष गौतम स्वामी स्तुति करते हुए कहते हैं - 'अष्ट कर्म - नाश करने वाले, कराने वाले चौबीसों तीर्थंकर ।'
यहां गौतम स्वामी मूर्ति में साक्षात् भगवान को देखते हैं । __ आदिनाथ भगवान ने पुण्डरीक स्वामी को सिद्धक्षेत्र पर ही रह जाने को कहा । नेमिनाथ ने पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्राप्त करके जरा विद्या नष्ट करने का कहा । महावीर स्वामी ने अष्टापद यात्रा के द्वारा चरम शरीरीपन बताया । ये सब दृष्टान्त बताते हैं कि भाव तीर्थंकर की भक्ति जितना ही लाभ स्थापना तीर्थंकर की भक्ति देती है।
'अष्टापद की यात्रा से उसी भव में मोक्ष मिलता है।'
भगवान की यह बात जान कर ही तापसों ने अष्टापद यात्रा के लिए कमर कस ली थी । ___उत्कृष्ट काल से १७० तीर्थंकर, नौ करोड़ केवली, नौ हजार करोड़ (नब्बे अरब) साधु और नब्बे अरब साध्वी ।
इन सबको जगचिन्तामणि में वन्दन होता है। यदि भाव से करो तो कितना लाभ है ?
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कहे