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• पन्द्रह दुर्लभ पदार्थ -
१. सपन, २. पंचेन्द्रियत्व, ३. मनुष्यत्व, ४. आर्यदेश, ५. उत्तम कुल, ६. उत्तम जाति, ७. रूप समृद्धि - पंचेन्द्रिय पूर्णता, ८. बल (सामर्थ्य), ९. जीवन (आयुष्य) १०. विज्ञान-विशिष्ट बुद्धि, ११. सम्यक्त्व, १२. शील, १३. क्षायिक भाव, १४. केवलज्ञान, १५. मोक्ष ।
इन दुर्लभ पन्द्रह पदार्थों में केवल तीन का ही इस समय अभाव है - (१) क्षायिक भाव, (२) केवलज्ञान और (३) मोक्ष ।
. मेरा अनुभव ऐसा है कि निर्मल बुद्धि सदा भगवान की भक्ति से ही आती है।
'धिइमइपवत्तणं' - अजितशान्ति में शान्तिनाथ भगवान का यह विशेषण है । धृति-मति के प्रवर्तक भगवान हैं । _ 'जेम जेम अरिहा सेविये रे, तेम तेम प्रकटे ज्ञान'
- वीरविजयजी महाराज . ऐसी कौन सी वस्तु है जो प्रभु से प्राप्त नहीं होती ? भगवान तो सबको देने के लिए तैयार हैं । भगवान में कोई पक्षपात नहीं हैं, हम लेने में अपात्र ठहरते हैं ।
गुरु सबको समान शिक्षा देते हैं, परन्तु विनीत प्राप्त कर सकता है और अविनीत नहीं प्राप्त कर सकता । दो सिद्धपुत्रों का उदाहरण प्रसिद्ध है - एक वृद्धा का घड़ा फूट गया तब अविनीत ने कहा : पुत्र मर गया । विनीत ने कहा : पुत्र अभी ही आयेगा ।
अर्थघटन करने के लिए निर्मल प्रज्ञा चाहिये । घड़ा फूट गया जिससे मिट्टी, मिट्टी में मिल गई और पानी पानी में मिल गया । उस प्रकार पुत्र भी जन्म भूमि में लौट आयेगा, ऐसा विनीत ने अर्थ-घटन किया, जबकि अविनीत ने अर्थघटन किया कि घड़ा फूट अतः पुत्र मर गया । विनीत का अर्थघटन सच्चा निकला ।
जो वस्तु प्राप्त नहीं हुई हो वह भी भक्ति प्रदान करती है। पं. भद्रंकरविजयजी इसके जीते-जागते उदाहरण थे। पूज्य प्रेमसूरिजी म. के इतने शिष्यों में उनके पास ही ऐसी निर्मल प्रज्ञा कहां से आई ? नवकार, प्रभु-भक्ति आदि के प्रभाव से ।
. विद्या, मंत्र आदि गुप्त रखने योग्य हैं । ये तो हम ऐसे हैं कि काम थोड़ा करें और गरजे अधिक । कहे कलापूर्णसूरि - १ ********
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