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________________ EPIGRAPHIA INDICA [VOL. XXVIII 8 नं कीर्तेर्मूलमिदं फलं वृषत्त (त) रोष्कि (रोः किं) वा सुधासागर (रः) । श्रीमद्*ि]भद्रहरेरगाधमहसः प्रासादमुद्राविधी मन्येयं भुवनत्रयीसुतिलकः कर्ता नृसिंघ (धः) स्वयं (यम्)' ॥॥ मयः (थ) वृत्तिवत्ता वा (बा) ह्मणानां (नाम्) । 'काँड (डि)न्यगोत्र लोलिग अग्निहो, त्री । भारद्वाजगोत्र माता पाठक । कृष्णानगोत्र सोमनाथ पाठक । अगस्तिगोत्र नागदेव पाठक । सांकरासगोत्र नारायणभट्ट । कासगोत्र राम उपाध्या । काँड (डि)न्यगोत्र महेस्व (श्व)र ज्योतिषी । सां (शां) डिल्यगोत्र सारंग पाठक । कांड (डि)न्यगोत्र वासुदेव 10 पाठक । भार्गवगोत्र सूल्हण पाठक । कांड (डि)न्यगोत्र हरदेवभट्ट । कास्य (श्य) पगोत्र फेस (श)व अवस्थी । वच्छीसगोत्र कृष्णभट्ट । वच्छपुरोष महादेव शुक्ल । कौसि (शि)कगोत्र महादेव पाठक । कास्य (श्य)पगोत्र सार(रं)ग पाठक । कास्य (श्य)पगोत्र कृष्णपंडित । कौसि (शि)कगो॥ जगधर पाठक । लोहितगोत्र रामदेव पाठक । वाछया (त्स्या)[य*नगोत्र गांगैया पाठक । कौरव्यगोत्र विष्णु पाठक । भारद्वाजगोत्र दामोदर भट्ट । भारद्वाजगोत्र वील्हण पाठक । कास्य (श्य)पगोत्र सारंग' उपाध्या । . . . . . . महादेव पाठक ॥ 12 पौराणिकवृत्तिमवाप्य शाश्वतीचकार लक्ष्मीधरपंडितोत्तमः । श्रीसिद्धसारस्वतकाश्यपान्वयी भद्रेश्वरे शाश (स)नपट्टिकाकृत्ति ॥१०॥ गंगाधरेण वै दत्तं गृहाणि वसुधा धनं । आचंद्रतारकं , यावन्नंद(दं)तु द्विजसत्तमा (माः) ॥११॥ व (ब)हु13 भिाः(भि)व(व)सुधा दत्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भुक्ति त (स्त)स्य तस्य तदा फलं (लम्) ॥१२॥ महतामपि पापाना दृष्टा शास्त्रेषु निःकृ (कृ)ति (तिः) । व(ब)ह्मदेयापहनी(र्तृ)णां न दृष्टा विश(क)तिः क्वचित् ॥१३॥ तालमानगुणैर्युक्ता प्रतिमा घटितामिमा । एला(षा) प्रशस्तिरुत्कीर्णा हेमदेवेन सि (शि)ल्पिना ॥ [१४] 1 The construction of this verse is faulty. . * The names of the doneos are mentioned without the Sanskrit case-endinge and in such forms were in vogue, e.g., Upadhya, Gangaiya, Ata (probably & corruption of Ananta). Some of the götra names also are not properly spelta There is an anusodra above this letter, which may be ignored. A blank space for about 6 letters is loft out before this name. This should have contained the name of the gora of the individual . The motre of this vorso is corrupt. Perhaps it was intended to be in the Upajati metro. The sense also is not quite cloor. • Better read पटिता विपन्.
SR No.032582
Book TitleEpigraphia Indica Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirananda Shastri
PublisherArchaeological Survey of India
Publication Year1949
Total Pages526
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size31 MB
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