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फिर भी वे अपने शिष्य पर कदापि क्रोध प्रदर्शित नहीं कर सकते थे अथवा साधुओं का । स्वाध्याय आदिबन्द नहीं करा सकते थे। क्योंकि यदिवे ऐसा करने लगे तो सब लोग समझने लगे कि गुरुदेव अपने शिष्य के उत्कर्ष (उन्नति) की ईर्ष्या करते हैं।
हृदय में जलती-भुनती गुरू की आत्मा एक दिन देह त्याग कर चल दी।
वह आत्मा काले नाग के भव में गई। अब साधुओं का नेतृत्व उस विद्वान शिष्य के हाथ में आया। गाँव-गाँव विहार करते हुए वे समस्त मुनिगण उसी उद्यान में आकर उतरे जहाँ वह काला नाग निवास करता था।
__ स्वाध्याय आदि से निवृत्त होकर वह विद्वान शिष्य ध्यान आदि के लिय उद्यान में वृक्ष के नीचे बैठने के लिय चला तब कुछ अमंगल हुआ। वह पुन: उपाश्रय में जाकर पुन: वृक्ष के नीचे बैठने के लिये प्रयाण करने लगा तो पुन: अमंगल हुआ। तीसरी बार भी जब ऐसा ही हुआ तब अन्य साधुओं ने उन्हें अकेले जाने से रोका तब वे कुछ मुनिगण के समूह में वहाँ गये।
तनिक आगे-जाने पर ही वह काला नाग फुफकारता हुआ आगे आया। अत्यन्त सावधान मुनियों ने उसे तुरन्त पकड़ लिया और वे उसे कहीं दूर छोड़ आये, परन्तु उस समय भी वह अपने वयोवृद्ध मुनि की ओर तीक्षण दृष्टि से घूर रहा था और उग्र क्रोध में वह उन पर झपटने का प्रयत्न कर रहा था।
पूर्वभव की ईर्ष्या ने इस भव में भी वैर जागृत किया था। अत: साधुओं को आश्चर्य हुआ। अपने वयोवृद्ध मुनि पर इस नाग को इतना इधिक क्रोध क्यों आता होगा, यह वे नहीं सकझसके।
___ अवसर पाकर उन मुनिगण ने उस उद्यान का त्याग करके अपना विहार आगे बढाया। मार्ग में किन्हीं विशिष्ट ज्ञानी महात्मा ने उन ज्ञानी महात्माओं को पूछा "हम यह नहीं समझ पाये कि हमारे वयोवृद्ध मुनि के प्रति उस उद्यान का काला नाग उग्र क्रोध क्यों करता होगा? कृपा करके आपे अपने ज्ञान-बल से हमारा संशय दूर करें।"
यह सुनकर उन महात्मा ने कहा "वह काला नाग आपके स्वर्गीय गुरू देव नयशीलसूरीजी की ही आत्मा है। आपको स्वाध्याय आदि कराने वाले इन विद्वान मुनि प्रति उन्हें उस समय अत्यन्त ईर्ष्या थी और उसी स्थिति में उनका निधन हो गया। परिणाम स्वरूप वे काले नाग बने हैं और पूर्व संस्कारों के कारण ही वे आपके विद्वान ज्येष्ठ मुनि पर क्रोधित हुए थे।"
यह सुनकर समस्त मुनिगण स्तंभित हो गये। सबके अन्तर से ध्वनि निकली "कर्म की कैसी विषम दशा है! यदि तनिक भी दोष हमको लग गया तो हमारा भी क्या होगा?
कैसी कटु यह शास्त्रीय कथा है! जीवन के अपने सद्गुण सम्मिलित होकर भी नयशीलसूरिजी की ईर्ष्या रूपी अवगुण से हुई दुर्गति को नहीं राक सके।
ईर्ष्या यदि इतनी भयानक है तो उसमें से ही उत्पन्न होने वाली निन्दा उससे भी अधिक