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गायों की दुर्दशा और डेरियों का दूध
___ गायों को वधिकगृहों (कत्लखानों) में भेजा गया। जिस गाय को 'गौमाता' कहकर हिन्दुओं ने उसका सम्मान एवं गुण-गान किया था, उस गाय को मृत्यु के मुँह में झोंक दी गई। उसके स्थान पर डेरियों का श्री गणेश हुआ। परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनता गाय-भैंसों के स्वास्थ्यप्रद दूध के बदले डेरियों के पाउडर युक्त दूध पीने लगी, जिसमें से प्रथम ही तत्त्व निकाल दिया गया होता है। इस प्रकार का दूध पीनेवाली जनता में बुद्धिहीनता, असत्यता, विवेकशून्यता उत्पन्न नहीं होगी तो और क्या होगा?
__ गाय की अपेक्षा ३रियों का दूध, उनका आयोजन आदि मँहगे होते गये। अरबों रूपये नष्ट करके आज जनता को सत्त्वहीन दूध पीने को मिलता है और वह भी अपार मँहगे मूल्य पर।
ऐसी तो कितनी ही बातों में हमने प्राचीन को समाप्त करके, तोड़ करके नवीन किया, परन्तु परिणाम स्वरूप सुखी होने के बदले हम दुःखी ही हुए हैं।
___प्राचीन समय की बैल-गाड़ियों को तिलांजलि देकर पेट्रोल तथा डीजल से चलने वाले वाहनों को हमने अपनाया। बैलगाड़ियों के कारण बैलों का भी पोषण होता था। उनसे कृषि बहुत अच्छी होती थी, गोबर-मूत्र आदि का खाद प्राप्त होता था, भूमि में रस प्रविष्ट होता जिससे अच्छी पैदावार होती थी और अन्न भी उत्तम प्राप्त होता था। बैलगाड़ियों को हटाकर हमने ये समस्त लाभ खो दिये, बैलों और गायों को कत्लखानों के योग्य बना दिया, हमें में जीव-हिंसा की भावना में वृद्धि हो गई और गाय-बैलों के द्वारा अन्य अनेक लाभ होते थे जिन्हें हमने खो दिया। आयुर्वेद विज्ञान का नाश करके क्या लाभ उठाया?
आयुर्वेद विज्ञान की अपेक्षा एलोपैथी विज्ञान को अधिक महत्त्व देने के कारण जनता के स्वास्थ्य को अत्यन्त हानि हुई। वर्तमान डाक्टर रोगी का रोग शीघ्र ठीक करने के लिये औषधियों की उग्र मात्रा देते हैं जिसके फलस्वरूप एलोपैथिक औषधियाँ एक रोग मिटाकर अन्य रोग उत्पन्न करती है। उसे ठीक करने के लिये डाक्टर तीसरे प्रकार की औषधि देता है और उसकी प्रति क्रिया स्वरूप (रीएक्शन से) चौथा 'कांक' रोगी की देह में खड़ा होता है। इस तरह रोगी इस विष-चक्र में से बाहर निकल ही नहीं सकता।
अनेक डाक्टर तो निदान करने में ही भारी गोते खाते रहते हैं परन्तु रोगी को उसकी अयोग्यता ज्ञात न हो जाये इस कारण वे उसे कुछ न कुछ औषधि लिख देते हैं। परिणाम स्वरूप रोगी की देह उग्र औषधियों की प्रतिक्रया का भोग होकर सदा के लिये अस्वस्थ हो जाती है।
कुछ महत्त्वपूर्ण शल्य-क्रिया की बात को छोड़कर एलोपैथी औषधियाँ रोगियों का रोग निर्मूल करने में पूर्णत: विफल सिद्ध होती हैं, जबकि धैर्य एवं निष्ठा पूर्वक पथ्य पाल कर आयुर्वेदिक औषधियाँ ली जायें तो आज भी वे रोग को समूल नष्ट करने का सामर्थ्य रखती हैं।
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