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मार्गानुसारिता के गुणों में चतुर्थ है -
पाप-भीरुता सांसारिक व्यवहार में भयभीत होने, घबराने को कायरता माना जाता है, जबकि आध्यात्मिक जगत् के व्यवहार में भयभीत होने, घबराने को वीरता की श्रेणी में माना जाता है। यह भय, घबराहट पाप से होनी चाहिये।
___ मानव से कदापि भयभीत नहीं होने वाला धर्मात्मा व्यक्ति पाप से तो अवश्य डरता ही है। जिस व्यक्ति के अन्तर में पाप का पाप के रूप में भय उत्पन्न न हुआ हो, वह व्यक्ति संसार में कदापि उत्तम मनुष्य नहीं बन सकता। उत्तम, मध्यम अथवा अधम, कोई पाप नहीं करता
नीतिशास्त्र का तो कथन है कि आर्य देश का कोई भी व्यक्ति कदापि पाप करता ही नहीं। उत्तम, मध्यम एवं अधम तीन भेद बताये गये हैं, जिनमें से उत्तम मनुष्य भी पाप नहीं करता। मध्यम मनुष्य भी पाप नहीं करता।
और अधम मनुष्य भी पाप नहीं करता।
क्योंकि उत्तम मनुष्य का तो स्वभाव ही ऐसा होता है जिस से वह पाप नहीं करता। उसे यदि पूछा जाये कि "भाई! तू पाप क्यों नहीं करता?"
वह इसका उत्तर इस प्रकार देता है कि, "भाई! पाप हो ही क्यों? पाप नहीं किया जाता।" बस, इस प्रकार जिसे स्वभाव से ही पाप प्रिय नहीं है और जो पाप नहीं करता वह उत्तम
मध्यम मनुष्य भी पाप नहीं करते। वे स्वभाव से ही पाप नहीं करें ऐसी बात नहीं है, परन्तु परलोक में इन पापों के फल भोगने पड़ते हैं जिन्हें भोगने की उनमें शक्ति नहीं होती। अत: परलोक के भय से मध्यम मनुष्य पाप नहीं करते।
आर्यदेश के अधम मनुष्य भी पाप नहीं करते। यद्यपि वे मध्यम मनुष्यों की तरह परलोक आदि को नहीं मानते होते हैं, तो भी वे पाप नहीं करते, क्योंकि उन्हें इस लोक का भय होता है - 'यदि मैं पाप करता हुआ पकड़ा जाऊँगा तो? तो तो मेरी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जायेगी और अपमानित होकर तो मैं जीऊँगा कैसे? इससे तो पाप नहीं करना ही उचित है।' इस प्रकार की विचारधारा से अधम मनुष्य भी पाप नहीं करता।
इस प्रकार आर्यदेश के उत्तम, मध्यम एवं अधम मनुष्य कदापि पाप नहीं करते थे, जबकि वर्तमान मनुष्य धड़ाधड़ पाप करते हैं। स्वभाव से उन्हें पाप प्रिय नहीं हो, ऐसा तो नहीं है, परन्तु उन्हें