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जो विशिष्ट प्रकार के ज्ञानी होते हैं और जो चारित्र युक्त होते हैं अर्थात् जो विशिष्ट प्रकार सदाचारों से युक्त होते हैं उन्हें शिष्ट कहा जाता है। ऐसे शिष्ट पुरुषों की विशिष्ट सेवा करके जो उनके कृपा-पात्र बने हैं, वे भी शिष्ट कहलाते हैं।
शिष्टों की सेवा के प्रताप से जो कृपा प्राप्त होती है उससे ज्ञानावरणीय एवं (चारित्र को दूषित करने वाले) मोहनीय कर्मों का नाश होता है। ऐसी आत्मा की बुद्धि भी सदा स्वच्छ रहती है, जिससे जीवन भी पवित्र बना रहता है।
इस प्रकार एक दीप से दूसरा दीप जलता है - एक शिष्ट पुरुष में से दूसरा शिष्ट और उससे तीसरा शिष्ट उत्पन्न होता जाता है। इस प्रकार शिष्ट पुरुषों की एक उत्तम परम्परा का सृजन होता है।
ऐसे शिष्ट पुरुषों के आचार-विचारों की अत्यन्त प्रशंसा करनी चाहिये और उनमें से जिस आचार-विचार को अपने जीवन में क्रियान्वित किया जा सके उसे क्रियान्वित भी अवश्य करना चाहिये।
प्रश्न - क्या समस्त शिष्टों के आचार-विचार उत्तम ही होते हैं, उनमें भूल नहीं हो सकती ? उत्तर- जिन्होंने ज्ञानवृद्ध एवं चारित्र सम्पन्न (साधु अथवा उच्च कोटि के संसारी) शिष्ट पुरुषों की सेवा करके शिष्टता प्राप्त की हो उन शिष्टों के ज्ञान एवं आचार उच्च कोटि के ही होंगे।
हाँ, जो केवल पुस्तकें पढ़कर पण्डित बने हों, वर्तमान समाचार-पत्र, पेम्फलैट, मेगजीन आदि ही जिनके लिये आदरणीय शास्त्र बने हुए और लोगों का मनोरंजन किस प्रकार अधिक हो यही जिनकी जीवन-दृष्टि हो - ऐसे मनुष्य बाह्य रूप से ज्ञानी हो अथवा चारित्रवान् हों उन्हें सही अर्थ में शिष्ट नहीं कहा जा सकता, उन्हें तो शिष्टाभाव कहा जा सकता है।
"शिष्टता प्राप्त करने का वास्तविक उपाय आप से अधिक ज्ञानी एवं अधिक चारित्रवान् सत्पुरुषों की सेवा है" - यह कहकर शास्त्रकार सत्पुरुषों की सेवा को कितना महत्व देते हैं ? सेवा का कितना अपार गौरव है ? वह भी इस प्रकार समझा देते हैं।
एक संस्कृत उक्ति का स्मरण हो आता है -
"सेवाधर्मः परमगहनो, योगिनामप्यगम्यः ।। "
"सेवा का धर्म अत्यन्त गहन है। सेवा का उत्तम फल क्या है ? उसकी महिमा कितनी अपार है ? वह तो जानना योगी पुरुषों के लिये भी अत्यन्त कठिन है । "
शिष्ट पुरुषों के ये कतिपय लक्षण हैं:
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1. जो लोक अपवाद से डरने वाला हो अर्थात् लोगोंमें निन्दनीय आचार हो, उन पर आचरण नहीं करने वाला।
2. जो दीन-दु:खियों के उद्धार में रूचि रखता हो।
CLC 37 JADIKAN