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तथा उस गृहस्थ के संसार को वह किसी अदृश्य रीति से भस्म कर डालता है।" अत: मुझे यदि सांसारिक दृष्टि से भी सुखी होना हो तो अनीति नहीं ही करनी चाहिये।
इस प्रकार अनेक प्रकार की भावनाओं को अपना कर अनीति का परित्याग करना चाहिये और नीति से पालन करना चाहिये।
अनीति का परित्याग करके नीतिवान बनने के लिये प्राचीन समय में हुए उत्तम नीतिवान् पुरुषों के दृष्टान्ते भी हृदयंगम करने चाहिये।
. इस प्रकार का एक प्रेरक दृष्टान्त विमल मंत्री का है। मंत्रीश्वर विमल की नीतिपरायणता
आबू के प्रसिद्ध पर्वत पर मंत्रीश्वर विमल की जिनालय का निर्माण कराने की तीव्र अभिलाषा थी। उसके लिये उन्होंने आबू पर्वत पर किसी उचित स्थान पर भूमि प्राप्त करने के प्रयत्न प्रारम्भ किये। यदि वे चाहते तो अपनी सत्ता का उपयोग करके वे इच्छित भूमि प्राप्त कर सकते थे, परन्तु ऐसा वे करना ही नहीं चाहते थे।
उन्होंने कुछ ब्राह्मणों को एकत्रित करके उनके स्वामित्व की भूमि की माँग की। अनेक विचार करके ब्राह्मणों ने कहा, "मंत्रीश्वर! आपको जितनी भूमि की आवश्यकता है उतनी भूमि पर स्वर्ण मुद्राऐं बिछा दो तो हम भूमि दे देंगे।" यह बात मंत्रीश्वर ने स्वीकार कर ली।
स्वर्ण-मुद्राओं की बोरियों आ गईं। उन्हें भूमि पर बिछाने का कार्य प्रारम्भ किया गया। उस समय मंत्रीश्वर के हृदय में तक विचार आया कि "अरे! यह तो मैं अनीति कर रहा हूँ। स्वर्ण-मुद्राओं का आकार गोल है, अत: उन्हें धरती पर बिछाने पर बीच-बीच की कुछ भूमि खाली रह जायेगी। इतनी भूमि भी मैं अनीति से कैसे ले सकता हूँ?"
इस पर मंत्रीश्वर ने समस्त स्वर्ण-मुद्रा लौटा दी, विशेष तौर पर नवीन वर्गाकार स्वर्ण मुद्राऐं तैयार कराई गई और उन्हें बिछवा कर मंत्रीश्वर ने अवश्य के भूमि खरीद ली।
यदि एक स्वर्ण-मुद्रा के पच्चीस रूपये ही गिने जायें तो भी 45360000 (चार करोड़, तरपन लाख एवं साठ हजार) रुपये केवल भूमि का क्रय करने में व्यय किये गये।
नीतिपरायणता का यह कैसा उत्तम आदर्श है? आदर्शों का मूल्य अत्यधिक
जीवन में आचरण की अपेक्षा भी आदर्श का मूल्य अधिक है। जिस व्यक्ति के आदर्श जितने उच्च होंगे, उसका जीवन उतना ही उच्च कोटि का हो जायेगा।
श्री जिन-शासन के गगन में वस्तुपाल, तेजपाल, पेथड़ मंत्री, कुमारपाल, सुलसा, मयणा,