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न हो उस कारण उन्होंने अपना गर्भ स्थिर किया, परन्तु उससे तो माता को सन्देह हुआ कि कहीं मेरे गर्भ की मृत्यु तो नहीं हो गई ? और उस सन्देह के कारण माता कल्पान्त करने लगी। जब भगवान को ज्ञात हुआ कि मेरी माता की पीड़ा दूर करने के लिये मैं स्थिर हुआ जो उसके लिये दुःखदायी सिद्ध हुआ अत: उन्होंने तुरन्त हलन-चलन प्रारम्भ किया, जिससे माता की चिन्ता दूर हुई।
इससे प्रभु को विचार आया कि जिस माता ने अभी तक मेरा चेहरा तक नहीं देखा फिर भी जिससे इतना मोह है वह भविष्य में मेरे दीक्षा ग्रहण करने के कारण कहीं मर तो नहीं जायेगी? और यदि ऐसा ही कुछ अमंगल हो गया तो भविष्य में जगत् को माता-पिता की भक्ति का उपदेश देने वाला मैं ही अपने माता-पिता के अहित का कारण बन जाऊंगा इस प्रकार न हो उसके लिये भगवान ने उसी समय अभिग्रह ग्रहण किया कि "जब तक मेरे माता-पिता जीवित होंगे तब तक मैं दीक्षा ग्रहण नहीं करूंगा।" इस अभिग्रह के द्वारा मानो प्रभु गर्भकाल में रहे परन्तु माता-पिता की भक्ति करने का इस विश्व के जीवों को उपदेश दे रहे हैं।
यदि स्वयं भगवान भी अपने माता-पिता की ऐसी और इतनी भक्ति करते हैं तो हमारा तो उन भगवान के भक्त के रूप में माता-पिता की सेवा-पूजा करने का भगवान की आज्ञा पालन करने का कर्तव्य है अथवा नहीं?
माता-पिता की भक्ति के प्रकार -
माता-पिता की भक्ति के अनेक प्रकार हैं। नित्य उनके चरण-स्पर्श करना, उनके पाँवों में दर्द हो तो दबाना, उनका चित्त प्रसन्न हो वैसा व्यवहार करना, उनकी आशाओं का पालन करना (यदि वे जिनाज्ञा से विरूद्ध नहीं हो तो) उनकी सेवा-भक्ति करना, उन्हें भोजन-पानी के प्रबन्ध में विशेष अनुकूलता कर देना, उनकी अनुकूलता-प्रतिकूलता का ध्यान रखना, उनकी अस्वस्थता के समय विशेष भक्ति करना तथा औषधि आदि का प्रबन्ध करना, उनके प्रति कटु वचन अथवा क्रोधमय वाणी का प्रयोग नहीं करना, दूसरों के समक्ष भी उनका सम्मान करना, पत्नी आदि के कारण उनके साथ दुष्टता नहीं करना, जगत् के उत्तम पूज्य के रूप में उनकी समस्त प्रकार से पूजा सुश्रुषा करना। इस प्रकार 'माता-पिता की पूजा' नामक गुण की आराधना करके मानव जीवन को सार्थक करें।
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