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________________ IRRORESocA90989090 रत्नावली सो रही थी वहाँ पहुँचने के लिये खिड़की में लटकते हुए एक लम्बे साँप को रस्सी समझ कर उसे पकड़कर वे तुरन्त उपर चढ गये। उपर पहुंचकर उन्होंने रत्नावली को जगाया। वह तो चौंक उठी, और बोली -अरे आप। यहाँ-कहाँ से ? और वह भी इतनी रात्रि के समय ? नीचे का मुख्य द्वार तो भीतर से बन्द था, फिर भी आप ऊपर कैसे आये ?" तुलसी दास ने कहा, "तेरे प्रति अत्यधिक प्रेम मुझे यहाँ खींच लाया तेरा विरह एक दिन के लिये भी मुझसे सहन नहीं हो रहा था। इस कारण मैं यहाँ भाग आया। मुख्य द्वार बंद होने से इस खिड़की में लटकती रस्सी के सहारे ऊपर चढ गया।" रत्नावली ने जब खिड़की में देखा तो चीख उठी" अरे। यह तो रस्सी नहीं, साँप है। तो क्या आपको इतना भी भान नहीं रहा कि यह रस्सी है अथवा सांप है ?" नहीं, मझे बिल्कुल भी ध्यान नहीं रहा, तेरे प्रेम ने मुझे पागल कर दिया था, जिससे मैं साँप को भी पहचान नहीं सका, तुलसीदास ने उत्तर दिया। तब रत्नावली ने उत्तर दिया"लाज न लागत आपको, दौड़े आये हूसाथ। धिक् ! धिक ! ऐसे प्रेम को, कहा कहूँ मैं नाथ ? अस्थि-चरम मय देह मम, तामें जैसी प्रीति। ऐसी होती राम मैह, होत न तो भव-भीति।।" आपको तनिक भी लज्जा नहीं आई जो पीछे के पीछे भागे आये। आपके ऐसे प्रेम को बारबार धिक्कार है, मैं आपको क्या कहूँ ? अस्थि-चर्म युक्त मेरी देह में आपको जितना प्रेम है, उतना यदि भगवान राम में आपका प्रेम होता तो आपका उद्धार हो जाता, आपकी देह और आत्मा दोनों का कल्याण हो जाता।" संसारी फिर भी अन्तर से संन्यासिनी जैसी रत्नावली रूपी संत की यह वाणी सुनकर कामांध तुलसीदास ने तत्क्षण संसार को त्याग दिया, वे विरक्त हो गये, वे संत तुलसी दास बन गये। इन्हीं संत तुलसीदान ने 'रामचरित मानस' जैसे महान् ग्रन्थ की रचना की। सत्संग से सन्तान भी धर्माभिमुख - जीवन में अन्य धर्म-कार्य कदाचित् न हो सकें तो चल सकता है, परन्तु सत्पुरुषों की, साधुजनों की सत्संगति तो अवश्य होनी चाहिये। यदि जीवन में से दुर्गुणों को निकालना हो, यदि धर्म-विमुख सन्तानों को धर्माभिमुख करने की लगन हो तो किसी उत्तम साधु-पुरुष का साक्षात्कार करा देना चाहिये, जिनके प्रभाव मात्र से, केवल सत्संग से उन सन्तानों में धर्म का प्रारम्भ निश्चित रूप से हो जायेगा। इसके लिये किसी प्रकार की सौगन्ध देने की भी आवश्यकता नहीं रहती। सच्चे साधु तो अपने निर्मल चारित्र से, आन्तरिक वात्सल्य से ओर सुमधुर स्वभाव आदि सद्गुणों से ही सामने वाले का हृदय जीत लेते है । उनके सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति अमुक क्षणों में ही उनका ROCKGRO 12000000000
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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