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MOREGER09090907 लिए 'धर्मलाभ' की घोषणा करते हुए उसके घर पर आहार लेने के लिये आये।
बस, संगम आनन्द-विभोर हो गया। 'अहो। मेरा कैसा अहो भाग्य कि मेरे आंगन में तपस्वी मुनिराज का पदार्पण हुआ। लो, मैं यह खीर मुनिराज को अर्पित कर दूं।
तनिक सोचें - ग्वालन का पुत्र, खीर खाने की उत्कट इच्छा, रो रोकर जीवन में प्रथम बार खीर प्राप्त की है, फिर भी मुनिराज को वह खीर अर्पित कर देने की उसकी इच्छा क्यों हुई ?
इसका उत्तर है - आसपास में निवास करने वाले उत्तम जैन पड़ोसियों के आवासों पर मुनिराजों को गोचरी के लिये आते-जाते वह देखा करता था। जैनों के बालकों के साथ रहते-रहते उसमें भी उत्तम संस्कार जागृत हुए थे। जैन मुनियों के प्रति उसके हृदय में श्रद्धा-भक्ति थी।
इस प्रकार उच्च कोटि के पड़ोसियों के कारण प्राप्त उच्च संस्कारों ने उसके मन में मुनिराज को खीर अर्पित करने की सद्-भावना जागृत कर दी और उत्तम भावोल्लास में संगम ने मुनिवर को समस्त खीर अर्पित कर दी।
मुनि को खीर अर्पित करने के पश्चात् भी वह स्व कृत सत्कर्म की निरन्तर अनुमोदना करता रहा। उसी रात्रि में उसका निधन हो गया। उस समय भी मृत्यु की पारावार वेदना के समय भी उसका अन्तर सतत् सुकृत की अनुमोदना में झूलता रहा और मरणोपरान्त वह गोभद्र सेठ के पुत्र शालिभद्र के रूप में उत्पन्न हुआ।
मम्मण सेठ एवं शालिभद्र दोनों के पूर्व भवों के प्रसंगों का चिन्तन करने से ज्ञात होगा कि जीवन में पड़ोस का कैसा ओर कितना महत्व है ? मम्मण के पूर्व भव में प्राप्त दुष्ट पड़ोस ने सुकृत की निन्दा करने के लिये छोड़ दिया, जबकि संगम को प्राप्त उत्तम पड़ोस के कारण उसमें मुनि को दान देने की उत्तम भावना जागृत हुई। सुकृत की अनुमोदना करने से वह उत्तम धर्म परम्परा का स्वामी बना। शुभ आलम्बन के बिना सद्गुण नहीं ठहरते -
___ जीव को जिस प्रकार के निमित्त अथवा आलम्बन प्राप्त होते हैं वैसा ही प्राय: जीव बन जाता है। इस कारण ही जीवन में शुभ आलम्बनों का अत्यन्त ऊँचा मूल्य है। शुभ आलम्बनों के बिना सद्गुणों की प्राप्ति दुर्लभ है, प्राप्त हो जायें तो उन्हें स्थायी रखना दुर्लभ है और कदाचित् स्थायी रह जायें जो भी उनकी वृद्धि करना कठिन है।
__ अत: शुभ आलम्बन युक्त स्थान में घर लेने का आग्रह रखना आवश्यक है। अनेक समझदार मनुष्य नवीन घर लेते समय ध्यान रखते हैं। इसके कारण वे पचास हजार अथवा लाख रूपये अधिक व्यय करने के लिये भी तत्पर रहते हैं और यह अत्यन्त आवश्यक है। इसका कारण यह है कि जीवन में रूपयों की अपेक्षा उच्च कोटि के सद्गुणों का अत्यन्त महत्व है। रूपये तो अनेक बार प्राप्त होने वाली वस्तु है, परन्तु खोये हुए सद्गुण शीघ्र कदापि प्राप्त नहीं होते। अत: जीवन में धन को अधिक महत्व न देकर गुणों की प्राप्ति को ही अधिक महत्व देना चाहिये। इस प्रकार जहाँ गुण-प्राप्ति