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Genecess09092906
धन व्यय करके की जाने वाली जिन-भक्ति भी कुन्तलोदवी की दुर्गति को नहीं टाल सकी।
मृत्यु होने पर कुन्तलादेवी उसी नगरी की उसी गली में कुतिया बनी। कैसी दुर्दशा! गली में रानियों के आवास के समक्ष, अपनी ही पूर्व जन्म की सौतों के समक्ष ईर्ष्यावश निरन्तर भौंकने के अतिरिक्त उसके पास अब अन्य कोई शस्त्र नहीं था।
एक दिन जब कोई ज्ञानी पुरूष नगर में पधारे तब उन सौतों ने उन्हें पूछा भगवन्! इस कुतियां के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है ? यह नित्य हमें देखकर क्यों भौंकती रहती है?
___ तब ज्ञानी भगवन् ने बताया, "तुम्हारी जिन-भक्ति देखकर तुम्हारी घोर ईर्ष्या के कारण ही कुन्तल कुतिया हुई है, जो पूर्व जन्म में ईर्ष्या के संस्कार के कारण आज भी तुम्हें देखकर भौंकती रहती है।
निन्दा की जननी ईर्ष्या कितनी भयानक है, खतरनाक है ? आत्म-प्रशंसा कदापि न करें
निन्दक व्यक्ति जिस प्रकार पर-निन्दा करता है उसी प्रकार से स्वयं की प्रशंसा करने में भी वह प्राय: नित्य तत्पर ही रहता है।
धर्मदत्त ने अपने पिता की सम्पति से दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षा के पश्चात् मुनि धर्मदत्त महान तपस्वी बना। तप के साथ-साथ उसने दुर्लभ चित्त-शान्ति,समता, शान्त-स्वभाव भी प्राप्त कर लिया था।
___ मुनि धर्मदत्त के इन गुणों के कारण उनका इतना प्रभाव फैला कि नित्य वैरी माने जाने वाले प्राणी जैसे शेर-बकरी, साँप-नेवला आदि भी उनके चरणों में आकर प्रशान्त हो जाते और परस्पर मित्र हो जाते।
उसके संपर्क से हजारों भीलों, शिकारीयों, हत्यारों एवं लुटेरों ने अपना पापी जीवन त्याग कर धर्ममय जीवन स्वीकार कर लिया था।
इस प्रकार के इस मुनिवर में भी एक दोष रूकावट बन गया और वह दोष था आत्मप्रशंसा।
धर्मदत्त मुनि के पिता ने अपने पुत्र-मुनि की प्रशंसा चारों ओर से सुनी थी, जिससे वे अत्यन्त प्रफुल्लित थे। वे एक दिन पुत्र मुनि को वन्दनार्थ आये। तत्पश्चात् वे मुनिवर के समीप बैठे ओर उन्होंने मुनि की फैली कीर्ति की प्रशंसा की।
तब धर्मदत्त मुनि ने कहा ''मैं अपने ही मुँह से अपनी प्रशंसा करूँ वह उचित नहीं है, अत: आप सामने बैठे हुए मेरे शिष्य के पास जाइये, वह मेरे द्वारा अर्जित सिद्धियों एवं लब्धियों की बात आपको बतायेगा।
सरल-हृदयी पिता तो उस शिष्य-मुनि के पास गये और उससे अपने पुत्र-मुनि की सिद्धि