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________________ संक्रमकरण ] [ ६५ सयोगी केवली के ही इन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिसंक्रम प्राप्त होता है। सेसियाण इत्यादि अर्थात ऊपर कही गई प्रकृतियों से अवशिष्ट जो प्रकृतियां हैं, यथा - स्त्यानर्द्धित्रिक, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधीचतुष्क, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, पंचेन्द्रिय जाति को छोड़कर शेष चार जातियां स्थावर, सूक्ष्म, आतप, उद्योत और साधारण इन बत्तीस प्रकृतियों का अपने-अपने क्षपण काल में जो चरम संक्रमण होता है, वह पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र प्रमाण जघन्य स्थितिसंक्रम है। यत्स्थिति तो अर्थात् सर्व स्थिति वही जघन्य स्थिति एक आवलिकाल से अधिक जानना चाहिये। उक्त कथन का यह आशय है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेद को छोड़कर शेष तीस प्रकृतियों की एक अधोवर्ती आवलि को छोड़कर शेष उपरितन पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र प्रमाण चरम खंड को अन्यत्र संक्रमाता है। इसलिये उन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति संक्रम काल में जो यत्स्थिति है, वही एक आवलि से अधिक जघन्य स्थितिसंक्रम जानना चाहिये। स्त्रीवेद और नपुंसकवेद की यत्स्थिति अन्तर्मुहूर्त से अधिक जघन्य स्थितिसंक्रम प्रमाण जानना चाहिये। क्योंकि उनके चरम स्थितिखंड को अन्तरकरण में स्थित रहता हुआ जीव नहीं संक्रमाता है और अन्तरकरण में उनके कर्मदलिक विद्यमान नहीं रहते हैं। अथवा उनका वेदन नहीं होता है। किन्तु अन्तरकरण के ऊपर वे दलिक विद्यमान या वेद्यमान होते हैं। अन्तरकरण का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इसलिये उन स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहूर्त युक्त यत्स्थिति प्रमाण जानना चाहिये। शेष प्रकृतियों का अन्तरकरण नहीं होता है। इसलिये उनकी यत्स्थिति एक आवलिकाल से युक्त जघन्य स्थितिसंक्रम प्रमाण जानना चहिये। इस प्रकार जघन्य स्थितिसंक्रम के प्रमाण का विचार किया गया। सादि अनादि प्ररूपणा ____ अब सादि अनादि प्ररूपणा का अवसर प्राप्त है। वह प्ररूपणा दो प्रकार की है - १. मूल प्रकृतियों सम्बंधी सादि अनादि प्ररूपणा और उत्तर प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा। इनमें से पहले मूल प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा करते हैं - मूलठिई अजहन्नो, सत्तण्ह तिहा चउव्विहो मोहे। सेसविगप्पा तेसिं, दुविगप्पा संकमे होंति॥ ३६॥ शब्दार्थ - मूलठिई – मूल स्थिति, अजहन्नो - अजघन्य, सतण्ह – सात का, तिहा – तीन १. इसका आशय यह है कि सयोगी गुणस्थान में वीर्य प्रवृत्ति रूप करण होने से वहां स्थितिसंक्रम होता है, जो करण रूप है, किन्तु अयोगी गुणस्थान में योग का अभाव होने से मात्र स्तिबुकसंक्रम होता है जो संक्रम करण रूप नहीं है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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