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________________ संक्रमकरण ] [ ५७ सत्तर कोडाकोडी सागरोपम स्थिति वाला मिथ्यात्व कर्म, चालीस कोडाकोडी सागरोपम स्थिति वाली सोलह कषाय और बीस कोडाकोडी सागरोपम स्थितिवाली नरकद्विक आदि बंधोत्कृष्टा प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम 'आलियदुगहति' अर्थात् दो आवलिका प्रमाण काल से ही होता है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - ___बंधी हुई स्थिति बंधावलिका व्यतीत हो जाने पर संक्रांत होती है। क्योंकि उदयावलिका सकल करणों के अयोग्य होती है। इस कारण उदयावलिका से ऊपर वाली स्थितियां संक्रांत होती हैं। इसलिये बंधोत्कृष्टा जो मतिज्ञानावरण आदि प्रकृतियां हैं उनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम दो आवलिका प्रमाण काल से हीन ही प्राप्त होता है। यहां उदयवती अथवा अनुदयवती प्रकृतियों के उदय समय से लेकर आवलि प्रमाण स्थितियों को उदयावलिका (उदयावलि) नाम से पूर्व ग्रंथ में कहा गया है। __ यद्यपि 'तीसा सत्तरि चत्तालीसा' इस ग्रंथवाक्य से यहां पर सत्तर कोडाकोडी सागरोपम स्थिति वाली मिथ्यात्व प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमं दो आवलिकाल से हीन कहा है, तथापि वह अन्तर्मुहूर्तहीन जानना चाहिये। क्योंकि मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति को बांध कर जघन्य रूप से भी अन्तर्मुहूर्तकाल तक मिथ्यात्व में ही रहता है। तत्पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त कर मिथ्यात्व की अन्तर्मुहूर्त कम स्थिति को सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व में संक्रांत करता है, इसलिये अन्तर्मुहूर्त कम ही उत्कृष्टस्थिति संक्रम होता है। जिसका स्पष्टीकरण आगे 'मिच्छत्तमुक्कोसो' इत्यादि गाथा में किया जा रहा है। तथापि यहां पर 'सत्तरि' पद समस्त बंधोत्कृष्टा प्रकृतियों की व्याप्तिपूर्वक बिना किसी विशेषता के दो आवलिकाहीन उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम दिखलाने के लिये किया गया है। "सेसाणमावलिगतिगूणो त्ति' अर्थात् शेष संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम तीन आवलिका से हीन होता है। जिसका अभिप्राय यह है - बंधावलि के व्यतीत हो जाने पर आवलिका से ऊपर का सभी स्थितिबंध दूसरी प्रकृति में आवलिका प्रमाण काल के ऊपर संक्रांत होता है। उसमें संक्रांत होती हुई भी वह प्रकृति आवलिका मात्र काल तक सकल करणों के अयोग्य होती है। अतः संक्रमावली काल के व्यतीत हो जाने पर उदयावलिका से ऊपर वाली स्थिति उससे अन्यत्र अर्थात् दूसरी अन्य प्रकृति में संक्रांत होती है। इसलिये संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम तीन आवलिकाल से हीन ही प्राप्त होता है। जैसे - नरकद्विक की बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को बांध कर बंधावलिका के व्यतीत हो जाने पर आवलिका काल से ऊपर की उस सभी स्थिति को मनुष्यद्विक को बांधता हुआ उस मनुष्यद्विक में संक्रांत करता है और संक्रांत होती हुई तीन आवलिका मात्र काल तक सकल करणों के अयोग्य है। इस नियम के अनुसार संक्रमावलि के व्यतीत हो जाने पर उदयावलि से ऊपर की उस सभी स्थिति को देवद्विक को बांधता हुआ उसमें संक्रांत करता है। इसी प्रकार अन्य संक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों का भी उत्कृष्ट
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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