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________________ २२ ] [ कर्मप्रकृति इस प्रकार सास्वादन और सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थानों के पतद्ग्रह व संक्रम स्थानों की प्ररूपणा जानना चाहिये। अविरत, देशविरत, प्रमत्त और अप्रमत्त विरत इन चारों में संक्रम की समानता होने से पतद्ग्रहस्थानों का एक साथ कथन करते हैं। ४ - ७ अविरत आदि अप्रमत्तविरत गुणस्थान - अविरत आदि अप्रमत्तविरत पर्यन्त चारों गुणस्थान वाले औपशमिक सम्यग्दृष्टियों के सम्यक्त्व लाभ के प्रथम समय से लेकर आवलिकामात्र काल तक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के पतद्ग्रहता रहती है किन्तु संक्रम नहीं होता है। इसलिये शेष छब्बीस प्रकृतियां अविरत जीवों के बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, कोई एक युगल, सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व रूप उन्नीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं तथा उपशमसम्यग्दृष्टि देशविरत के प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क और संज्वलन कषायचतुष्क पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, कोई एक युगल, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व पन्द्रह प्रकृतिक पतद्ग्रह रूप स्थान में तथा उपशम सम्यग्दृष्टि प्रमत्त एवं अप्रमत्त संयत के संज्वलनचतुष्क पुरुषवेद सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा और किसी एक युगल रूप ग्यारह प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं। इन्हीं उपशम सम्यग्दृष्टि अविरत सम्यग्दृष्टि आदि अप्रमत्त विरतपर्यन्त जीवों के एक आवली से परे (द्वितीयादि आवलिकाओं में) सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय संक्रम और पतद्ग्रह रूप में पाई जाती है, इसलिये सत्ताईस प्रकृतिक स्थान पूर्वोक्त तीनों ही पतद्ग्रहस्थानों में संक्रांत होता है तथा इन्हीं अविरत सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के अनन्तानुबंधी की उद्वलना हो जाने पर चौबीस प्रकृतियों की सत्ता वाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवों के सम्यक्त्व प्रकृति पतद्ग्रह हो जाती है, इसलिये शेष तेईस प्रकृतियां पूर्वोक्त उन्नीस आदि तीनों ही पतद्ग्रहस्थानों में संक्रांत होती हैं। तत्पश्चात् मिथ्यात्व के क्षय हो जाने पर सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति पतद्ग्रह रूप से है और मिथ्यात्व संक्रम रूप से नहीं पाई जाती है, इसलिये शेष बाईस प्रकृतियां अविरत देशविरत और प्रमत्त अप्रमत्त संयतों के यथाक्रम से अठारह, चौदह और दस प्रकृति रूप पतद्ग्रहस्थानों में संक्रांत होती हैं। तत्पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्व के क्षय हो जाने पर सम्यक्त्व का भी संक्रम नहीं होता है और न पतद्ग्रह ही होती है। इसलिये इक्कीस प्रकृतियां अविरत, देशविरत और संयत जीवों के यथाक्रम से सत्रह, तेरह और नौ प्रकृति रूप पतद्ग्रहस्थानों में संक्रांत होती हैं। । उक्त समग्र कथन को निम्नलिखित प्रारूप द्वारा सरलता से समझा जा सकता है -
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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