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________________ संक्रमकरण ] कर्म के अठारह पतद्ग्रहस्थान होते हैं । कि विशेषार्थ. सोलह, बारह, आठ, बस और तेईस आदि छह अर्थात् तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस और अट्ठाईस इन दस स्थानों को छोड़कर शेष एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, नौ, दस, ग्यारह, तेरह, चौदह, पन्द्रह, सत्रह, अठारह, उन्नीस, इक्कीस और बाईस प्रकृतिक अठारह पतद्ग्रहस्थान होते हैं । उनमें से किस पतद्ग्रहस्थान में कौनसी प्रकृतियां संक्रांत होती हैं ? इसको स्पष्ट करते हैं - [ १९ - १ मिथ्यात्व गुणस्थान अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्व प्रकृति, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की पतद्ग्रह है, इसलिये उसको निकाल देने पर शेष सत्ताईस प्रकृतियां मिथ्यात्व, सोलह कषाय, तीन वेदों में से कोई एक वेद, भय, जुगुप्सा, हास्यरतियुगल, अरतिशोकयुगल इन दोनों में से कोई एक युगल रूप बाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं । सम्यक्त्व का उद्वलन करने पर सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता वाले उसी मिथ्यादृष्टि के / मिथ्यात्व प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व की पतद्ग्रह हो जाती है। इसलिये उसको कम करने पर शेष छब्बीस प्रकृतियां पूर्वोक्त बाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं । सम्यग्मिथ्यात्व की उवलना हो जाने पर छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता वाले उसी मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व में कुछ भी संक्रांत नहीं होता है, इसलिये वह किसी भी प्रकृति की पतद्ग्रह नहीं है । इसलिये पूर्वोक्त बाईस प्रकृतियों में से उसे निकाल देने पर शेष इक्कीस प्रकृतियों के समुदायरूप पतद्ग्रहस्थान में पच्चीस प्रकृतियां संक्रांत होती हैं । अथवा छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता वाले अनादि मिथ्यादृष्टि के भी मिथ्यात्व प्रकृति किसी भी प्रकृति में संक्रांत नहीं होती है और न उसमें भी कोई अन्य प्रकृति संक्रांत होती है, इस प्रकार आधार आधेय भाव से रहित मिथ्यात्व प्रकृति को निकाल दिया जाता है। तब शेष रही पच्चीस प्रकृतियां पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं । चौबीस प्रकृति की सत्ता वाला जीव मिथ्यात्व में आता हुआ यद्यपि मिथ्यात्व के निमित्त पुनः अनन्तानुबंधी कषायों को बांधने लगता है, तथापि बंधावलिकागत दलिक सकल करणों के अयोग्य होते हैं, इस नियम के अनुसार अनन्तानुबंधी के दलिकों के होते हुए भी उस समय वह संक्रांत नहीं होती है । मिथ्यात्व प्रकृति सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की पतद्ग्रह है, इसलिये अनन्तानुबंधी चतुष्क और मिथ्यात्व को छोड़कर शेष तेईस प्रकृतियां पूर्वोक्त बाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं । 1 ی
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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